आज 23 सितंबर है, हाइफ़ा विजय दिवस! आज के दिन को विदेशी धरती पर भारतीयों के पराक्रम की महान गाथाओं में विशेष स्थान प्राप्त है। आज के इस आलेख में बाबा इज़रायली आपको बताएंगे कि किस प्रकार से वर्ष 1918 में आज के दिन तत्कालीन जोधपुर रियासत के सपूत श्री दलपत सिंह शेखावत और उनकी जांबाज़ टुकड़ी ने इज़रायल के प्रमुख शहर हाइफ़ा को तुर्क आतंकवादियों के अवैध कब्ज़े से आज़ाद करवाया था!
उस दौर की आधुनिक सेनाओं के विरुद्ध मेज़र दलपत सिंह जी के नेतृत्व में जोधपुर, मद्रास एवं मैसूर रियासत की सेनाओं के भारतीय योद्धाओं ने इज़रायल की धरती पर उस अदम्य शौर्य का प्रदर्शन किया, जो विश्व इतिहास में एक अमर गाथा बनकर दर्ज़ हो गया। मेज़र दलपत सिंह के नेतृत्व में भारतीय योद्धाओं ने तलवार, भाले और बरछी जैसे परंपरागत हथियारों के दम पर बेहद आधुनिक हथियारों से लैस उस्मानिया सल्तनत के 10,000 से भी अधिक आतंकवादियों को धूल चटाते हुए मात्र 1 घंटे के अंदर मध्य पूर्व का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले हाइफ़ा नगर को आज़ाद करवा लिया था।
हाइफ़ा की यह ऐतिहासिक लड़ाई 23 सितंबर, वर्ष 1918 को लड़ी गई थी। इस लड़ाई में भारतीय सेना का नेतृत्व जोधपुर रियासत के सेनापति मेजर दलपत सिंह ने किया था जिनको अंग्रेज़ों ने हाइफ़ा पर कब्ज़ा करने के लिए भेजा था। इस सेना में जोधपुर रियासत के सैनिकों को आक्रमण का दायित्व सौंपा गया था जबकि मद्रास और मैसूर रियासत के सैनिकों के द्वारा रसद आपूर्ति एवं युद्ध के दौरान आक्रमणकारी जोधपुरी दस्ते को कवर प्रदान करने का कार्य सौंपा गया था।
जैसे ही सेनापति दलपत सिंह ने अपनी सेना को दुश्मन पर टूट पड़ने के लिए निर्देश दिए, वैसे ही भारतीय रणबांकुरों की यह सेना दुश्मन को ख़त्म करने और हाइफ़ा पर कब्ज़ा करने के लिए आगे की ओर बढ़ चली लेकिन तभी अंग्रेज़ों को यह मालूम चला कि दुश्मन के पास बंदूकें और मशीनगन भी हैं जबकि जोधपुर रियासत की सेना घोड़ों, तलवारों और भालों से लड़ने वाली थी। अतः अंग्रेज़ों ने दलपत सिंह से वापस लौट आने का आग्रह किया लेकिन उन्होंने यह कहते हुए वापस लौटने से साफ़ इंकार कर दिया कि एक बार यदि युद्ध के लिए कूच कर दिया तो फिर हमारे यहां वापस लौटने का कोई रिवाज़ नहीं है। हम रणबांकुरे रणभूमि में उतरने के बाद या तो जीत हासिल करके लौटते हैं या फिर वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं।
आख़िर दलपत सिंह के नेतृत्व में उनकी सेना ने उस्मानिया सल्तनत के आतंकवादियों के ऊपर भीषण आक्रमण कर दिया। उस्मानिया सल्तनत के आतंकवादियों को इस बात का अंदाज़ा भी नहीं था कि उनके उन्नत हथियारों के आगे तलवार और भालों से लड़ने वाले भारतीय सैनिक खड़े भी हो सकते हैं! शायद उस्मानिया सल्तनत की सेना के द्वारा यह सोचना उनकी सबसे बड़ी ग़लती सिद्ध हुई जिसने पिछली 6 शताब्दियों से चली आ रही उस्मानिया सल्तनत के पतन की शुरुआत कर दी।
भारतीय सैनिक उस्मानिया सल्तनत की सेना की बंदूकों, तोपों और मशीनगनों के सामने अपने छाती अड़ाकर डट गए। अपनी परंपरागत युद्ध शैली से बड़ी बहादुरी के लड़े जोधपुर की सेना के करीब 900 सैनिक वीरगति को प्राप्त तो हुए लेकिन उनके द्वारा लड़े गए इस युद्ध के परिणाम ने विश्व के महानतम युद्धों के परिणामों की गाथाओं में एक अमर इतिहास रच डाला।
मात्र 1 घंटे के भीषण युद्ध के पश्चात भारतीय सैनिकों ने इज़रायल के हाइफ़ा शहर को फ़तह करके 6 शताब्दियों पुरानी दुनिया की सबसे बड़ी इस्लामी सल्तनत का अंत कर दिया। भारत के हिंदू शूरवीरों ने यहूदियों के हाथ से 2,000 वर्ष पहले निकल चुके इज़रायल राष्ट्र के प्रथम नगर हाइफ़ा को इस्लामी आतंकवादियों के चंगुल से छुड़ाकर भविष्य के स्वतंत्र यहूदी इज़रायल राष्ट्र की पुनर्स्थापना की नींव रखी।
हाइफ़ा का युद्ध, विश्व का एकमात्र ऐसा युद्ध था जिसमें परंपरागत हथियारों से लड़ने वाले चंद भारतीय सैनिकों ने अपने से बेहतर सामरिक स्थान पर बैठी अपने से 20 गुनी संख्या में एवं आधुनिक हथियारों से लैस दुश्मन की सेना को मात दी थी। शायद यही कारण है कि इज़रायल भारत के इस उपकार को कभी नहीं भूलता है और भारत के कांग्रेसी ग़द्दारों के द्वारा पिछले 70 वर्षों से अधिक समय से फ़िलिस्तीनी आतंकवादियों के साथ खड़े होने के पश्चात भी भारत के प्रति सहृदयता का भाव रखते हुए उसे सदैव निःस्वार्थ सैन्य एवं रणनीतिक मदद प्रदान करता रहता है।
हाइफ़ा विजय के इन वीरों की याद में भारत के दिल्ली एवं इज़रायल के हाइफ़ा नगर में तीन मूर्ति चौक का निर्माण किया गया है। आज हाइफ़ा विजय दिवस के इस पावन अवसर पर हम समस्त हिंदू एवं यहूदी भाई-बहन इस युद्ध में बलिदान हुए भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए सादर नमन करते हैं।
शलोॐ…!