सतयुग के प्रारंभ से लेकर कलयुग के अंत तक एक सृष्टि-चक्र कहा जाता है। इस सृष्टि-चक्र की यह विशेषता होती है कि इसमें प्रारंभ से लेकर अंत तक धर्म एवं अधर्म के स्तर सदैव क्रमशः निम्नतर एवं उच्चतर बिंदु की ओर अग्रसर रहते हैं। वैदिक मान्यता के अनुसार सतयुग में केवल धर्म ही व्यापकता के साथ दृष्टिगोचर होता है तथा उसमें अधर्म का वास नहीं होता है जबकि इसके बाद के युगों में शनैः-शनैः अधर्म का स्तर उच्चिष्ठता की ओर ऊर्ध्वगमन करने लगता है एवं वहीं इसके विपरीत धर्म का स्तर निम्निष्ठ बिंदु की ओर अधोगमन करने लगता है।
उपरोक्त वर्णित मतानुसार त्रेता, द्वापर एवं कलयुग में क्रमशः धर्म की हानि एवं अधर्म की अधिकता होने लगती है एवं इन युगों में धर्म एवं अधर्म का स्तर एक तय सतत-प्रक्रिया के अनुसार बदलता रहता है। अतः इन युगों में धर्म-रक्षण की नीतियों में भी स्पष्ट अंतर देखा जा सकता है। एक ओर त्रेता युग में जहां श्री राम धर्म की रक्षा धर्म-मार्ग से ही करना उचित समझते हैं तो वहीं दूसरी ओर द्वापर युग तक आते-आते श्री कृष्ण की नीति, धर्म रक्षा के लिए अधर्म के मार्ग का अनुसरण करने की स्वतंत्रता प्रदान करती है। जब त्रेता एवं द्वापर युगों की धर्म-रक्षण की नीतियों में ही इतना बड़ा अंतर उत्पन्न हो सकता है तो फ़िर धर्म-रक्षण की कलियुगीन नीतियां भला कैसे बिना असंशोधित हुए पूर्ववर्ती नीतियों पर ही चलती हुई रह सकती हैं? वैसे भी कलियुग में तो अधर्म का स्तर त्रेता और द्वापर में अधर्म के स्तर से कहीं अधिक उच्चतर बिंदु पर जाकर प्रतिस्थापित हो चुका है।
अतः धर्मशास्त्र, राजनीतिशस्त्र एवं कूटनीतिशास्त्र के कई महान आर्यावर्ती धर्मशास्त्रियों, राजनीतिज्ञों एवं कूटनीतिकारों ने अपने-अपने स्तर पर पूर्ववर्ती कृष्ण-नीति में सामयिक संशोधन करके कलियुगकालीन अधर्मी चुनौतियों से निपटने का प्रयास किया परंतु क्षेत्रीय, सामाजिक एवं लघु-रूप में वर्णित होने की सीमाओं के चलते उनकी नीतियां लंबे समय के लिए अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने में सक्षम नहीं हो पाईं। कलियुगीन कूटनीतिज्ञों में यदि किसी कूटनीतिज्ञ ने सर्वप्रथम एक बड़े कालखंड तक कार्य कर पाने वाली कोई सक्षम प्रभावी कूटनीति प्रदान की तो वे केवल और केवल आचार्य चाणक्य ही हैं।
आजकल वैश्विक कूटनीतिक हलकों में जिस ‘चाणक्य-नीति’ की प्रमुखता से चर्चा की जाती है, उत्स से वह नीति पूर्ववर्ती कृष्ण-नीति एवं उसके उपरांत आचार्य चाणक्य तक अवतरित हुए समस्त प्राचीन सनातनी ऋषियों, मनीषियों, धर्माचार्यों, राजनीतिज्ञों एवं कूटनीतिज्ञों के द्वारा देश-काल एवं परिस्थितियों के अनुसार सुझाई गईं विभिन्न समसामयिक नीतियों का समग्र संग्रहण है जिसे आचार्य चाणक्य ने और अधिक धार देते हुए अपने समयानुसार आधुनिकतम स्वरूप प्रदान किया। ‘अर्थशास्त्र’ नामक महान राजनैतिक-ग्रंथ में वर्णित अपनी महान कूटनीति में आचार्य चाणक्य ने धर्म-रक्षण हेतु पूर्ववर्ती कृष्ण-नीति में वर्णित ‘भेद-नीति’ पर विलक्षण कार्य करते हुए इसे और अधिक सामयिक-परिमार्जित रूप प्रदान किया जिसे आगे चलकर महर्षि भर्तृहरि जैसे महान सनातनी ऋषियों ने अपनी कालजयी रचनाओं- श्रृंगार-शतक, नीति-शतक एवं वैराग्य-शतक के समग्र संग्रह ‘भर्तृहरि शतक’ के माध्यम से और भी अधिक सूक्ष्मता के साथ ग्राह्य बनाते हुए व्यवहारिक रूप में आम-जनमानस तक पहुंचाया। आचार्य चाणक्य द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र’ नामक ग्रंथ, ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के बाद सर्वकालिक रूप से कूटनीति के महानतम ग्रंथों में शीर्ष पर है जिसके विषय में किसी आगामी लेख में विस्तार से चर्चा की जाएगी।
शलोॐ…!