जबसे श्री हरि मंदिर साहिब में उनको इबादत करने की अनुमति देने और शाहीन बाग़ में लंगर लगाने की ख़बरें आईं तबसे हिंदुओं के बड़े और सिखों के एक छोटे तबके में यह ख़बर बेचैन करने वाली बन गई कि सनातनियों और सिखों का रिश्ता आख़िर क्या है? हम एक दूसरे से आपस में कितने दूर अथवा कितने पास हैं?
इस प्रश्न ने हममें से लगभग सबको परेशान करना शुरू कर दिया। इसी बीच हमने सनातनी-सिख एकात्मता के सेतु तलाशने शुरू किए तो इस क्रम में कुछ सिखों और सनातनियों ने हमसे पूछा कि जब नानक देव जी ने सनातनियों से अलग जाकर अपना पंथ शुरू किया था तो फिर आप किस प्रकार की सनातनी-सिख एकात्मता की बात कर रहे हैं? आख़िर हमारे बीच किस प्रकार का साम्य हो सकता है?
क्या वाकई नानक जी कुछ ऐसा लेकर आए थे जो सनातन धर्म में नहीं था या फिर उनकी शिक्षा ऐसी थी कि जिसका सनातन धर्म की किसी शिक्षा के साथ टकराव था? क्या वाकई नानक देव जी ने कोई नया धर्म चलाया था या फिर पहले से पूर्ण सनातन धर्म के अंदर वह एक मार्गदर्शक, सुधारक और पुनरुत्थानवादी भर थे?
उपरोक्त समस्त बातों एवं शंकाओं का लिटमस टेस्ट बस एक ही है कि श्री गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सांगोपांग-पारायण किया जाए और यह देखा जाए कि उनकी ऐसी कौन सी शिक्षा है जिसका मूल सनातनी-विचारधारा के साथ टकराव है? इसके अतिरिक्त यह भी अन्वेषित किया जाए कि उनकी शिक्षा का कौन सा ऐसा भाग है, इस्लाम जिसकी स्वीकृति प्रदान करता है?
यदि आप तटस्थ होकर गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का अन्वेषण करेंगे तो आप यह अवश्य पाएंगे कि उन्होंने ‘वहदत’ यानी ‘तौहीद / एकेश्वरवाद’ (Monotheism) की बात की परंतु क्या इतने भर से यह माना जा सकता है कि वह इस्लाम के प्रचारक हो गए? क्या ‘सनातनी-चिंतन का एकेश्वरवाद’ और ‘इस्लाम का तौहीद’ समान हैं? नहीं… बिलकुल भी नहीं…! एक ओर जहां इस्लाम का तौहीद अपने साथ-साथ नबी, पैग़ंबर, किताब, जन्नत, जहन्नम और क़यामत के साथ-साथ न जाने कितनी चीजों को अंतर्निहित रखता है तो वहीं दूसरी ओर गुरु नानक देव जी का एकेश्वरवाद ‘एक-अकाल’ की बात करते हुए मानव-मात्र की भलाई के समता-ममता तथा संगत-पंगत तक जाकर स्वमेव विस्तृत हो जाता है।
इसी क्रम में आगे अन्वेषण करने के उपरांत हम पाते हैं कि इस्लाम का तौहीद तमाम अंतहीन मान्यताओं के साथ संकीर्णता की कारा में जकड़ा हुआ है जबकि गुरु नानक देव जी का एकेश्वरवाद सनातन-चिंतन के ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ (ऋग्वेद, 01:164:46) नामक सूत्र को क्रियान्वयन की उच्चिष्ठता पर ले जाकर प्रतिस्थापित करता है। मानव-मात्र की भलाई के लिए गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के अंदर जो विस्तार, गहराई और पूर्णता है वह भी उसी बीज का प्रस्फुटन है जिसे ‘ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते…’ (ईशोपनिषद) के रूप में उपनिषदों के अंदर परिभाषित किया गया है।
अब गुरु नानक देव जी के एकेश्वरवाद के दूसरे पक्ष के ऊपर बात करते हैं। जब इस्लामी विध्वंसकारी सैलाब पंजाब सहित पूरे भारत को तेज़ी से लीलने की कोशिशों में जुटा हुआ था तो गुरु नानक देव जी ने अपने एकेश्वरवाद के दम पर इस्लाम के तौहीद के सिद्धांत को लगभग किंकर्तव्ययविमूढ़ सा कर दिया था। नानक देव जी ने अपने एकेश्वरवाद के माध्यम से इस्लाम को को यह स्पष्ट संदेश दिया था कि वह जिस तौहीद की बात करता है, वह तो सनातन-आत्मा की ही थाती है जो भारत-भूमि से उठकर एवं कालांतर में विकृत होकर उसके पास पहुँचा था! इस प्रकार गुरु नानक देव जी का एकेश्वरवाद, इस्लामी तौहीद पर इस्लाम के एकाधिकार के दावों को पुष्ट नहीं कर रहा था अपितु उसकी धज्जियां उड़ा रहा था। अतः गुरु नानक देव जी की शिक्षा का समग्र अवलोकन एवं अन्वेषण करने के उपरांत हम पाते हैं कि उनकी शिक्षा हिंदुत्व की विपरीतगामी नहीं बल्कि हिंदुत्व की पूर्णता एवं विस्तारकता को ही सुनिश्चित करती है।
यदि हम सनातन साहित्य में जाएंगे तो हम पाएंगे कि वेदों में दान को सर्वोपरि धर्म और सर्वोत्कृष्ट कर्तव्य के रूप में निरूपित किया गया है। ‘शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त संकिर’ (अथर्ववेद, 03/24/05) अर्थात सैकड़ों हाथों से धन अर्जित करो और हज़ारों हाथों से उसे दान करो एवं ‘दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते’ (ऋग्वेद, 01/125/06) अर्थात दक्षिणादाता ही अमर पद प्राप्त करते हैं जैसे दानी-आचरण के अनुपालन की सैकड़ों मिसालें सनातनी-चिंतन में मौजूद हैं जिन्हें महादानी कर्ण से लेकर महादानी राजा शिबि ने अपने जीवन-चरित्रों से आलोकित किया है। इसके अलावा भी सनातनी-इतिहास ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा हुआ है जिसमें राजा-महाराजा हर चौथे-पांचवें वर्ष अथवा किसी विशेष यज्ञादि के अवसरों पर अपनी समस्त संपत्ति अपनी प्रजा को दान कर दिया करते थे। जब कालांतर में समाज में इस वैदिक आदेश का लोप होने लगा तो गुरु नानक देव ने संगत और पंगत का उपदेश हुए इसको पुनः आरम्भ किया। नानक देव जी का ‘वंड छको’ (मिल-बांटकर खाओ) का मंत्र, उपरोक्त वर्णित वेद-वाक्य ‘शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त संकिर’ का ही साकार प्रस्फुटन है।
गुरु नानक देव जी के बारे में कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने अवतारवाद का विरोध किया इसलिए सनातनियों के साथ उनका साम्य नहीं है तो हमारा ऐसे लोगों से प्रश्न है कि अगर उन्होंने अवतारवाद और मूर्ति-पूजा का विरोध किया भी तो क्या ऐसा करने वाले वह अकेले व्यक्ति थे? मध्यकाल एक भक्ति का काल था जब भारत का प्रत्येक क्षेत्र अपने-अपने यहां भक्ति की धारा के उछाह का गवाह बना हुआ था। इस काल में गुरु नानक देव जी के अलावा कबीर जैसे अनेक संत पैदा हुए जिन्होंने अवतारवाद और मूर्ति-पूजा का पुरज़ोर खंडन किया। इसके अलावा आधुनिक काल में भी दयानंद जी ने अवतारवाद और मूर्ति-पूजा का तीव्रतम विरोध किया तो क्या ये सभी लोग हिंदू नहीं रहे? क्या ये सच नहीं है कि अवतारवाद के विरोधी दयानंद को हम हिंदुओं ने ही ‘महर्षि दयानंद’ कहकर सम्मानित और सुशोभित किया?
क्या हम हिंदू यह नहीं जानते कि बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, नानक, कबीर, रामानंद, दयानंद, विवेकानंद- ये सब वो वह लोग थे जिन्होंने अपने-अपने स्तर से रुग्ण हिंदू समाज की शल्य-चिकित्सा करने का प्रयास किया और इसके लिए ये लोग विभिन्न आस्थाओं के मानने वाले लोगों की आलोचना के पात्र भी बने। क्या इतने मात्र से हम इन मनीषियों को हिंदू-धर्म से अलग कर सकते हैं?
गुरु नानक ने निराकार की उपासना सिखाई परंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि उन्होंने अपने शिष्यों को हिंदुत्व की परिधि से पार कर दिया। अगर गुरु नानक के द्वारा ऐसा करने से उनके शिष्यों को हिंदू-धर्म से अलग माना जाएगा तो फिर ईश्वर के निराकार रूप को भजने वाले रामानंद एवं शंकर देव जैसे अनेक संत भी हिंदुत्व की परिधि से बाहर हो जाएंगे।
जिस समय इस्लाम अपनी ‘आलमी मसावात’ यानि मानव-समानता की बात करते हुए पंजाब को मतांतरित करने की कोशिशों में लगा था तब वह केवल गुरु नानक ही थे जिन्होंने अपनी गगनभेदी ललकार के द्वारा इस्लाम को नंगा करते हुए भारत के जनमानस को यह समझाया था कि इस्लामी समानता के ये सारे दावे इसलिए झूठ और कपट भर हैं क्योंकि इस्लामी मानव-समानता के दायरे में केवल और केवल मुसलमान ही आते हैं जबकि हमारी शिक्षा बग़ैर किसी भेदभाव के पूरी मानव जाति को स्वयं में समेटती है। वास्तव में यदि देखा जाए तो गुरु नानक देव जी का यह कथन ऋग्वेद की ऋचा ‘अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते संभ्रातरो वावृधुः सौभगाय’ (ऋग्वेद, 05/60/05) अर्थात ऐसे तुम, जिनमें न कोई बड़ा है और न कोई छोटा है, ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए मिलकर बढ़ो, के सन्देश को ही अग्रसारित कर रहा था।
गुरु नानक देव जी ने सनातनियों की लगभग हर जाति के अंदर से अपने शिष्यों को चुना। ऐसा करके उन्होंने किसी नए विधान को जन्म नहीं दिया अपितु उन्होंने प्राचीन वेदकालीन सनातनी व्यवस्था का ही पुनः प्रतिस्थापन किया जिसमें समाज के प्रत्येक व्यक्ति को परिष्कृत कर उसको विभिन्न प्रकार के नेतृत्व प्रदान करने का नैसर्गिक अधिकार था। गुरु नानक देव जी का ‘सरबत का भला’ कथन भी मानव-मात्र के कल्याण को अभिप्रेरित करने वाले हिंदू आदर्श ही की बात करता था। उनका ‘ईश्वर सबके लिए’ का आदर्श भी उसी वैदिक आदेश का प्रसारण था जो सभी मानवों को ईश्वर की वाणी अर्थात वेद के श्रवण और पाठन का अधिकार प्रदान करता है।
कुल-मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि गुरु नानक देव जी की ऐसी कोई भी शिक्षा नहीं है जिसको मानने में सनातनियों को किसी भी प्रकार का इनकार अथवा हिचक हो। इसके साथ ही यह भी बिलकुल सत्य है उनकी कोई भी ऐसी शिक्षा नहीं है, इस्लाम जिसे बग़ैर अगर-मगर के मान्यता प्रदान कर सके! हालांकि यह बात सत्य है कि सौ-सवा सौ साल पहले गढ़े गए ‘असी हिंदू नई’ के नरेटिव के विभाजनकारी नारे की मृगतृष्णा में आज सिख-बंधु इतने आगे निकल आए हैं कि उन्हें गुरु नानक देव की बुनियादी शिक्षाओं पर चिंतन का समय ही नहीं मिल रहा है। यदि उन्होंने एक बार भी निष्पक्ष होकर गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं पर मनन एवं चिंतन किया होता तो शायद उन्हें बहुत पहले ही इस इस बात का ज्ञान हो गया होता कि वे और सनातनी हिंदुओं का अस्तित्व प्याज़ के छिलकों की तरह ही आपस में एकरूप है। यूट्यूब पर मौजूद हिंदू सिख एकात्मता पर बना कालजयी सीरियल ‘चुन्नी’ इस बात को पुष्ट करता है। यदि प्रत्येक सनातनी हिंदू इसे अपने सिख हिंदू भाइयों को और प्रत्येक सिख हिंदू इसे अपने सनातनी हिंदू भाइयों को देखने को प्रेरित करेगा तो निश्चित ही इन दोनों भाइयों के मध्य उपजे अलगाववाद के कंटक के शोधन में आशाजनक परिणाम प्राप्त होंगे।
पूज्य गुरु नानक देव जी ने केवल अपने सिख बनाए थे और उन सिखों के अंदर हम भी हैं और हमारे अतिरिक्त अन्य हिंदूजन भी हैं। इसलिए जिन सिखों को स्वयं को हिंदू कहने में आपत्ति है वे इस बात को अच्छी तरह से समझ लें कि हमें स्वयं को सिख कहने में किसी भी प्रकार की कोई हिचक नहीं है। अलगाववाद के ज़हरीले नारों से प्रभावित होकर जो सिख स्वयं के हिंदू होने से इंकार कर रहे हैं उन्हें शायद यह पता नहीं कि हर हिंदू गुरु नानक देव जी का सिख है और उनका प्रत्येक सिख सहजधारी है। अतः जब हम हिंदू सहजधारी सिख हैं तो फिर अलगाव की बात ही क्या है?
शलोॐ…!
मूल लेख: अभिजीत सिंह
संपादन: बाबा इज़रायली