‘यूपी का जंगलराज’: राम-भक्तों के क़ातिलों को न हम भूलेंगे और न ही माफ़ करेंगे…

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(पूर्व-निवेदन: यदि आपके पास 10 मिनट का एकांत समय हो तो ही राम-भक्तों की इस महान गाथा को पढ़ने का कष्ट करें…)

आज एक ऐसी पोस्ट, जो सामयिक पोस्ट तो है ही बल्कि इतिहास की एक ‘सत्य-कथा’ भी है, यदि आप आद्यांत पढ़ेंगे तो ऐसा अनुभव करेंगे कि यह किसी एक व्यक्ति या बाल-मन की नहीं बल्कि वृद्ध हो चले युवाओं और प्रौढ़ हो चले किशोरों और बालकों के एक समय का अनुभूत सत्य भी है। यह आत्मानुभव है एक ऐसे धर्मनिष्ठ, राष्ट्रवादी और संवेदनशील सनातनी का, जिसका कि अंतिम अभीष्ट है प्राकृतिक शक्तियों के साहचर्य व प्रकृति के सान्निध्य में मनुष्यता की स्थापना और ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ का चाव और भाव! राम जी का जीवन-संदेश यही तो है। उन्हीं राम जी के जन्मस्थान पर अत्याचार, नरसंहार और प्रतिकार के बाद राम जी की जय-जयकार का, किसी रामभक्त के द्वारा जो स्वर उच्चार हुआ, बाबा इज़रायली के संपादन में उसी का सामयिक लेखा-जोखा है यह आलेख…

“एक लंबा वक़्त लगा है यहां तक आने में। न जाने कितना पानी समय की सरयू में बहकर रह गया। आज अयोध्या जो उजला दिन देख रही है, इसके पीछे न जाने कितनी काली रातों का शबाब, कारस्तानियों का अड़ंगा लगाता आया है। बालक से अधेड़ हो आया मैं, तब यह दिन देखना नसीब हो रहा है। पर सोचिए उन धर्मयोद्धाओं के संबंध में, जो इस उजाले के दिव्य-प्रासाद की नींव को भरने में बलिदान हो गए। जीते-जी इन हुतात्माओं का स्वप्न साकार न हो सका। अब वे नारायणलोक में बैठकर धरती के इस नज़ारे को हमारे नयनों से निरख रहे हैं।

तब बहुत समझ तो नहीं थी पर अच्छी तरह याद है कि कैसे आशंकित उत्साह के दिए दिलों में दीपित हो रहे थे, जब राम-रथ रावणीय चंगुलों से संघर्ष करते हुए निकला था। अबकी रथ के पथ की दिशा विपरीत थी- सोमनाथ से अयोध्या, पर ‘जंगलराज’ अब भी था। बिहार प्रदेश में लालू प्रसाद यादव का, उत्तर प्रदेश में मु-ल्ला-यम सिंह यादव का और देश में वी. पी. सिंह का। इन सबने कुछ ऐसा किया, जिससे भारत का मिज़ाज बिगड़ा। कंसवंशी लालू ने स्वयं को कृष्णवंशी कहकर सूर्यवंशी राम के रथ को रोका और इस रथ के रथी को बुरी तरह बंधक बना लिया। हालांकि इससे अयोध्या का उत्साह और बढ़ गया था।

तब हम लखीमपुर-खीरी जनपद के एक गांव में अपने दादी-बाबा के पास रहते थे। इसी पैतृक गांव से निकलकर हमने दुनिया देखी है। हम लोग एक साथ शैव, वैष्णव और शाक्त हैं। उस समय घर के अंदर पड़ी सीमेंट वाली टीन तले दादी के पास बिस्तर में रज़ाई में लेटकर गुनगुना गए थे। गांव में मौसम जल्दी बदलते हैं और दिन जल्दी ढलते हैं। भुरहरा भी लहमे में होता है और सांझ भी लहमे में लफाती आती है। दौस भर के थके-मांदे लोग खा-पीकर जल्द ही नींद को दुबक लेते हैं या कोइरे पर आकर औरों के साथ जम जाते हैं। अब या तो कथा या वार्ता, सब डूबे रहते हैं।

रोचक शीत होने लगा था। रात लगभग नौ बजे के आसपास अचानक से गहमागहमी बढ़ गयी थी। देर शाम कोई सूचना पहुंची थी गांव में शहर से या कस्बे से। शहर हमारा लखीमपुर था और उसके पास ही नज़दीकी कस्बा पड़ता था। कस्बा हमारे गांव से कोई तीन किलोमीटर के आसपास पड़ता था और हम वहां पर पैदल पढ़ने के लिए जाने लगे थे। छठवीं कक्षा में नाम लिखाया था हमने स्थानीय कॉलेज में। तब शायद सातवीं में आ गए थे। दुधवा पैसेंजर देर शाम को लखीमपुर से हमारे गांव से समीप वाले कस्बे के लिए आया करती थी। सो इसी का कोई नियमित यात्री ऐसी ख़बर लाया था, जो छूटते ही स्थानीय ग्रामीणों के मध्य ज्वलंत चर्चा का विषय बन गयी थी। लोग इधर-उधर से ख़बर लेने लगे थे। शोहरा होने लगा था। चर्चा छिड़ गई थी।

अब क्या ही कहें उस रात की बात! पिताजी पुलकित थे। बाबा का गला भर आया था। उनका कंठावरोध ऐसे अवसरों पर अक्सर होता रहता था। उनका यह लक्षण हम में भी आया है। माता जी अतिरिक्त सक्रिय हो उठी थीं। दोनों बुआओं की बातों की चहल-पहल से कहीं कुछ विशेष-सा लगा था! अंधेरे में दियों की रोशनी एकदम पवित्र और तीव्र हो उठी थी। आज भी वह बिंब उसी तरह ताज़ा है। ऐसी निष्कंप लौ! अद्भुत! अपूर्व आभा थी। ऐसा निष्कलंक और शीतल उजाला हमने पहले कभी न देखा था। पूरा घर ईश्वरीय उजाले से भर गया था। न जाने क्यों हमारे उस बाल-मन को पुनः फिर वैसी उजास न दिखी।

फिर जल्द ही एक दिन की बात। दिन ढल चुका था। शाम गहरा रही थी पर ऐसी स्याह शाम उससे पहले कभी हमारी नज़रों से गुज़री हो, याद नहीं पड़ता। फिर कोई सूचना शहर से एक अख़बार के रूप में आयी थी। ‘आज’ था दैनिक समाचार-पत्र। मौखिक सूचनाएं तो आ चुकी थीं पर उस समाचार-पत्र ने अपनी काली-काली तस्वीरों और स्याह-स्याह समाचारों से सभी का दिल दहला दिया था। उस दिन हम घर के दरवाज़े पर पड़े छप्परों के तले ओंटे पर बैठे हुए थे। दादी, बाबा, बड़ी बुआ, छोटी बुआ, पड़ोसी और अन्य जिज्ञासुजन एकत्र थे और हम पता नहीं कितने बोझिल अनमने मन से दैनिक ‘आज’ को बांच रहे थे।

लालटेन की रोशनी न जाने क्यों फैल ही नहीं रही थी। गोल-गोल रोल बनाकर जैसे-तैसे आए उस तुड़े-मुड़े अख़बार को लालटेन से अड़ाए हुए हम हर पंक्ति पर अपनी आंखें गढ़ाकर हुए समाचारवाचक बने हुए थे। रह-रह कर एक-एक ख़बर पढ़ रहे थे। एक ही कॉलम कई-कई बार पढ़ने लग जाते थे। जो आता था, पढ़वाता था और उदास होता था। कारसेवकों के मृत, हत-आहत, क्षत-विक्षत होने की ख़बरें दिल को दहलाने वाली थीं। देश-विभाजन के ख़ून-ख़राबे के बाद पिछले दशकों में यही ख़बर शायद गांव वालों के लिए सबसे बड़ी ख़बर थी जो इस तरह काले-कलेवर में लिपटकर आई थी।

कारसेवकों को किस तरह घेरा गया, कैसे उन पर अत्याचार किए गए, कहां-कहां उनका निर्मम तरीक़े से दमन किया गया और कितने धर्म-योद्धाओं की नृशंस हत्याएं सरकार ने करवाईं- यह याद करते हुए आज भी हमारी रूह कांप जाती है। यह जलियांवाला बाग़ से भी अधिक निर्मम और पीड़ादायक हत्याकांड था। सहस्रों रामकुने-सेवकों से कुंए के कुंए भर गये थे। इन धर्म-योद्धाओं की कटी-फटी और निष्प्राण देहों से न जाने कितनी गलियां पट गई थीं। पुलिस के जल्लादी अत्याचार से कोई सुरक्षित नहीं था। मुलायमराज, मु-ल्ला-यम-राज हो चुका था। मुलायम पर मुला-यम का असल ठप्पा उसकी इसी करतूत के कारण लगा था। वह अपने ऊपर बेशर्मी को लादकर पूरी तरह से मोहम्मद बिन कासिम, महमूद ग़जनवी, चंगेज़ ख़ान, तैमूर, बाबर, औरंगज़ेब, टीपू सुल्तान और सुहरावर्दी जैसे इस्लामी आक्रांताओं एवं आतंकवादियों की तरह काफ़िरों का सामूहिक क़त्लेआम करने वाला एक ‘ग़ाज़ी’ बन चुका था।

यह पहली घटना थी जब हिंदुओं की ओर से यह खुलकर स्वीकारा गया था कि मुलायम, मु-ल्ला-यम ही है। इससे पहले केवल उसी की पार्टी के कुछ लोग उसको ‘मु-ल्ला’ मानते थे। वह आतंकवादी लोगों का चहेता था क्योंकि वह उनके वोटों के लिए किसी भी सीमा तक समझौतावादी हो जाता था। उसने ‘माय’ (MY) का मतलब ‘मुलायम सिंह यादव’ से कब ‘मुस्लिम-यादव’ फ़ैक्टर में बदल दिया- यह जब तक पता चलता, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। हिंदू-नरसंहार की इस ऐतिहासिक घटना के द्वारा, उसने पूरे होशो-हवास में अपने को यदुओं का कंसवंशीय ‘अरबी संस्करण’ सिद्ध करते हुए धर्म-रक्षण की महान ‘यदुवंशी-परंपरा’ का कलंकित करने का निंदनीय कार्य किया। यादव उसकी सूची में इस्लामी आतंकवादियों के बाद में तब भी थे और तब से लेकर आज भी रहे हैं।

हमारे कस्बे का इंटर कॉलेज तब एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय था। हम उस कॉलेज में पढ़े हुए हैं। हमें अच्छी तरह से याद है कि पैदल आते-जाते समय हमें वह पर्चे मिलते थे जिनमें यह अपील होती थी कि मुल्क़ में इस्लामी हुकूमत क़ायम करने के लिए मु-ल्ला-यम को वोट दें। हमको ‘कल्ला मीनार’ और ‘ग़ाज़ी’ नामक लफ़्ज़ों के अर्थों की जानकारियां भी उन्हीं पर्चों से मिली थीं। इसके अलावा और भी बहुत सारी बातें उन पर्चों में लिखी होती थीं पर भाषा की समृद्ध जानकारी न होने के कारण वे हमारे पल्ले नहीं पड़ती थीं। ऐसे कई प्रतिलिपित, छपे हुए और फोटो-स्टेट किए हुए अनेक पर्चे हमने सालों-साल संभाल कर रखे थे पर बाद में घर छोड़ देने के बाद वे सब गांव में कहीं तितर-बितर हो गए। हो सकता है कि जब एक बार घर में आग लगी थी तो उस समय वे सब जल गये हों! तब हम गांव में ही रहते थे पर छुट्टियों में अपने तहेरे भाई के साथ ताऊ जी के पास उनके शहर में गए हुए थे।

ग़ाज़ी बनने के नशे में मु-ल्ला-यम से ऐसे पाप होते चले गए जिनका कि कोई प्रायश्चित्त ही न था। पर वह प्रायश्चित्त करता तब न! वह तो अपने पापों को तमगों की तरह आजीवन अपने सीने पर सजाए हुए घूमता रहा और बेशर्मी के साथ सार्वजनिक मंचों से इस तरह की बातें करता रहा कि यदि वह सब उसे फिर से करना पड़े तो भी वह उसे करने से इंच मात्र भी पीछे नहीं हटेगा! उसके अन्य उत्तराधिकारी भी उसके इसी नक्शे-क़दम पर चलने वाले निकले। अपने को भगवान श्री कृष्ण का वंशज कहने वाले इन सबने रामसेवकों और रामवंशजों का जितना नुकसान किया, उतना नुकसान तो मध्यकाल के मीरबाकी, बाबर और औरंगज़ेब सरीखे इस्लामी जल्लाद भी नहीं कर पाए! हमारी किसी से कोई व्यक्तिगत खुन्नस नहीं है किंतु हमको लगता है कि गंदा रक्त अपना असर दिखाता ही है और वह दूसरों से अधिक अपनों के लिए ही ज़्यादा ख़तरनाक होता है।

अस्तु, कलकत्ता के कोठारी-बंधुओं को ‘भगवा’ लहराने के बदले ‘बलिदान’ प्राप्त हुआ था। शरिया की नज़र में ‘केसरिया’ हमेशा से ‘शिर्क’ का प्रतिनिधित्व करता रहा है। अमर हुतात्मा श्रद्धेय शरद कोठारी जी और राम कोठारी जी एक लंबी यात्रा और पेंचदार सुरक्षा के बावजूद अयोध्या में दाख़िल हुए थे। लगभग पौने पांच-सौ सालों के इतिहास में श्री राम जन्म-भूमि मंदिर पर धर्म-ध्वजा फहराने वाले वे पहले सनातनीजन थे। तत्कालीन नमाज़वादी सरकार ने इस रामकाज को ‘राजद्रोह’ माना था और उनको सबक़ सिखाने और ठिकाने लगाने की ठान ली थी। अतः इस काम के लिए उसने श्री राम जन्मभूमि के जनपदाधिकारी रामशरण श्रीवास्तव से आदेश निकलवाकर कोठारी बंधुओं की ‘इरादतन हत्याएं’ करवा दी थीं।

पर उनकी हत्याओं को सरकार वैसे नहीं छिपा पायी थी, जैसे प्रकट-अप्रकट रूप से अन्य हज़ारों हत्याओं को छिपा लिया गया था। हालांकि नराधम सरकार इस कुकृत्य को छिपाना भी नहीं चाहती थी क्योंकि वह एक राज्य के आतंकवादी वर्ग के तुष्टीकरण की नीति पर चलते हुए अपने तथाकथित ‘लॉ एंड ऑर्डर’ को इस्लामी झुकाव वाला और सख़्त दिखाने के नज़रिए से इसे ‘फ़ख्र’ के तौर पर प्रस्तुत कर रही थी। यह बात अलग है कि सरकार के द्वारा क़त्लेआम किए गए हिंदुओं की सही संख्या को एहतियातन छिपा लिया गया था। ऐसा इसलिए भी किया गया था क्योंकि लगभग हर सरकार मौक़े-ब-मौक़े पर यही करती है और हिंदुओं की मौतों को छिपा ले जाती है। आख़िर हमारे पुरखों ने यह सत्य ही कहा गया है कि सिद्धांतरहित व्यक्ति के हाथ की राजनीति, घाघ-वेश्या की तरह होती है, जिसके आंसू मगरमच्छी होते हैं और जीभ दुकट्टी होती है।

चित्र: अयोध्या नर-संहार की दु:खद दास्तान का एक हृदय-विदारक अंश (हेमंत शर्मा की पुस्तक ‘अयोध्या का चश्मदीद’ से साभार)

अगले कुछ ही घंटों के बाद ‘राम-भक्तों की सामूहिक क़त्लगाह’ बनने जा रही अयुध्य अयोध्या का हवाई निरीक्षण करने के लिए मु-ल्ला-यम और उसका मार्गदर्शक सहयोगी मोहम्मद आज़म खां निकल पड़े। समस्त क्षेत्र का मौक़ा-मुआयना करने के पश्चात इस दोनों मुजाहिदीन ने सीआरपीएफ़ की 58वीं बटालियन के कमांडर जे. एस. भुल्लर, तमरेंद्र सिंह, सीआरपीएफ़ के उप-निरीक्षक मोहम्मद उस्मान और एसएसपी सुभाष जोशी को बुलाया और अयोध्या में कारसेवा करने जा रहे सभी राम-भक्तों के ‘डेथ वारंट’ पर मौखिक दस्तख़त कर दिए। उसके बाद क्या हुआ, वह हिंदू-नरसंहारों की श्रृंखला के एक दु:खद हिस्से में अंकित है।

युद्ध की रंजितता से वर्जित ‘अयोध्या’ की ‘शुभंकर भूमि’ पर भयंकर ‘अशुभ’ हुआ था। अवधपुरी को ‘वधपुरी’ बना डाला गया था। साकेत के न जाने कितने आश्रम और घरों के कमरे मृतकों से अट-पट गए थे। न जाने कितने ही ब्रह्मचारियों, युवाओं, साधुओं और छात्रों का जीवन नष्ट कर दिया गया था। कई दिन में तो कई ख़ौफ़ में ही मर गए थे। मु-ल्ला-यम के द्वारा पूरे प्रदेश में भयानक दमनचक्र चलवाया जा रहा था। यह एक दूसरे अघोषित आपातकाल की तरह था, जो उत्तर प्रदेश में लागू था। पुलिस ‘जल्लादी आतंक’ का पर्याय हो गई थी। न जाने कितने जन, जान और जीवन बचाने को भटक रहे थे। साधुओं और युवा छात्रों का सबसे बुरा हाल था। साधुओं के केश और दाढ़ियां नोच कर उनकी हत्याएं की जा रही थीं। छात्रों को दौड़ा कर पीटने के बाद उनको लाठियों और गोलियों से मारा जा रहा था। अयोध्या और उसके आस-पास के क्षेत्र में रहने वाले संतजन एवं छात्रगण खेतों-पगडंडियों के रास्ते बग़ैर समूह बनाए और कोई सामान लिए, खाली हाथ अकेले ही पलायन करने लगे थे।

न जाने कितने जन और जत्थे इस दौरान दबे-छिपे इधर-उधर चुपचाप आते-जाते रहे। हमारे यहां भी कुछ आए। कुछ तो अपने संबंधी-बंधु ही थे। ईश्वर ने हमको उनकी इस सेवा का अवसर दिया था। उस दौरान हमने देखा कि माता जी कभी किंचनमात्र भी रसोई सेवा से नहीं डिगीं। कभी पूरी-तरकारी, कभी पराठा-छिल्ले तो कभी खिचड़ी- जो जल्दी तैयार हो जाये; क्योंकि एक स्थान पर अधिक वक़्त तक इन डगरते जनों का ठहरना, सुरक्षित न था। डोल-डाल ज़रूरी थी। एक स्थान पर नाहक ‘धरे जाने’ का ख़तरा भी था। सो इन आने वाले लोगों को भोजनादि करवाकर तुरंत रवाना करना पड़ता था। आगे न जाने किस समय इन भूखे-प्यासे सेवकों को भोजन नसीब हो, इसे ध्यान में रखते हुए सब कुछ त्वरितता से करना पड़ता था।

वीडियो: अगर और रामभक्तों को भी मारना पड़ता तो सुरक्षाबल ज़रूर मारते | मु-ल्ला-यम सिंह यादव

हम बाल-सुलभ तौर पर बड़े उत्साह से सबकी सेवा में लगते थे। देखा था न कि क्या-क्या किया जाता है? तीनों भाई-बहनों में हम ही सबसे बड़े थे, सो सबको बड़ा तोष होता था। बाद में यह संस्कार ही हो गया। उन दिनों दुआरे पर दिन के राजा के न जाने कितने घने झाड़ थे। सैकड़ों की संख्या में चिड़ियां उनके मकोयनुमा फलों के लिए दिन भर जुटी माहौल चहकाया करती थीं। आज सोचते हैं कि कितना कठिन वक़्त था वह! समाज की दृष्टि में उस वक़्त जो वास्तव में दिन के राजा थे, आज़ाद परिंदों जैसे लोग- वे राजनीति की रात-रानियों की साज़िशों से छुपते-छुपाते यत्र-तत्र भटकने को अभिशप्त हो गए थे।

मु-ल्ला-यम-गैंग अपनी लाख तरक़्क़ियों और कोशिशों के बावज़ूद फिर से कभी हमारी नज़र में नहीं चढ़ सका। न जाने हमारे कितने प्रिय परिचित और संबंधी हैं, जो नमाज़वादी हैं और हमसे ‘कुछ अच्छे’ की अपेक्षा करते हैं, जुड़ना-जोड़ना चाहते हैं किंतु हम उस गैंग से जुड़ने की कभी सोच ही न सके। यह शोचनीय है और लज्जाजनक भी कि स्वयं को योगेश्वर श्री कृष्ण का वंशज बताने वाले इन नमाज़वादियों की सोच आज सनातनी समाज के कितनी विपरीत हो गई? किसी और पंथ के लोगों की चिंतना को हिंदूद्रोही कहने से पहले हम अपने यशस्वी यदुवंश के इन कलंकितों के चिंतन के चलन-विचलन से ग्लानिमय होकर भर-भर और मर-मर जाते हैं। सच में धिक्कार है हमें कि हम इन ‘नमाज़वादी कंसवंशियों’ को एक लंबे वक़्त तक ‘गीतावादी कृष्णवंशी’ समझने की भूल करते रहे!

फिर एक कालखंड के बाद की बात, देश की केंद्रीय सत्ता बदल चुकी थी। प्रदेश की सरकार में भी परिवर्तन हो चुका था। मु-ल्ला-यम-राज के बाद ‘कल्याण’ का राज स्थापित हो चुका था। ‘92 की बात है। हालांकि बाबरी ढांचे की रक्षा के लिए श्रद्धेय कल्याण सिंह जी से हलफ़नामा भी लगवा लिया गया था किंतु होनी को कौन टाल सकता है? आख़िर ‘समय बड़ा बलवान गुसाईं’! राम जन्म-भूमि का कलंक ज़मींदोज़ हो गया। आस्था के उमड़ते जन-सैलाब में बहुत कुछ बह गया। कल्याण सिंह जी ने रामभक्ति के ऊपर अपनी सरकार को न्यौछावर करना मुनासिब समझा पर समर्पित एकनिष्ठ रामसेवकों पर गोली चलवाने से साफ़ इनकार कर दिया।

वैसे इसके पीछे भी कई स्याह षड्यंत्र कहे जाते हैं जो समय के साक्ष्यों के सहारे बाहर आने शेष हैं। कहते हैं कि अल-कांग्रेस की योजना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे हिंदूनिष्ठ संगठन को समूल नष्ट करने की थी, इसलिये वह एक योजना के तहत भाजपा को गली-गली बर्बाद और बदनाम करने के लिये अपने कुछ आतंकवादी अयोध्या भेज चुकी थी जो उमड़े जन-सैलाब के दौरान अवसर पाकर भीतर से बम-विस्फोट द्वारा ढांचे को पूरी तरह उड़ाने वाले थे। स्थिति-नियंत्रण को गोलियां चलतीं। न जाने कितने मरते? जन-संघर्ष छिड़ता। प्रशासन-प्रकाशन मैनेज करके राजनीतिक रोटियां सिंकती पर गोली न चलना, सब बेकार कर गया। कल्याण सिंह जी ने बड़ी समझदारी दिखाई थी।

और फिर एक लम्बा कालखंड, लगभग पच्चीस-तीस सालों का। प्रक्रिया प्रारंभ रही। हम स्वयं प्रकियावादी ही रहे हैं, प्रतिक्रियावादी नहीं। आज जब श्री राम के मंदिर के पुनर्स्थापन का मुहूर्त है तो यह हज़ारों-हज़ार हुतात्मा धर्म-योद्धाओं को श्रद्धा समर्पित करने का समय है। यह समय है उन्हें याद करने का, जिनके नामों को आज समय की किसी सूची में उस दिव्यता के साथ संग्रहीत नहीं किया जा सका जैसा कि किया जाना चाहिए था किंतु जिन्होंने किसी न किसी तरह धर्म-चिंतना, राष्ट्रीयता और स्वाभिमान के संदर्भों को अपना रस-रक्त दिया है, यह समय है उन्हें अर्घ्य अर्पण करने का। जो सदियों तक सब कुछ सह कर अपनी आन को बचाए रहे, अपने मान-सम्मान को बनाए रहे, प्राण छोड़ दिये पर अपने धर्म को नहीं छोड़ा। जिन्होंने कठोर संकल्पपूर्वक ‘धर्म’ को जीवित रखा- वे समस्त जन हमारी सहज श्रद्धा के अधिकारी हैं। उन सभी को इस अवसर पर स्मरण किया जाना चाहिए।

यह अवसर है उन्हें याद करने का, जो दुनिया भर में राम के नाम के सहारे भारतीय संस्कृति को स्पंदनशील किए रहे। यह अवसर है उन्हें याद करने का, जिन्होंने रामकथा लिखी, कविताएं रचीं और न जाने कितने अमंद नारे संघर्षरत धर्म-समाज को दिए। यह अवसर है उन्हें याद करने का, जिन्होंने जन्मभूमि विध्वंस के समय से अब तक अपने पैरों में पादत्राण और सर पर पगड़ी धारण न की और न अपने घरों के मंगलकारजों में कोई ख़ुशी मनाई। यह अवसर है उन नेताओं और अधिकारियों को भी याद करने का, जो दरबारी प्रभाव और राजनीति के दबाव के बावजूद राम की नीति और राम के काज को नहीं भूले।

यह अवसर है मंगल-महोत्सव का। ऐसे में हमें हर दुराग्रह, पूर्वाग्रह और हठ से ऊपर उठना होगा। ऋजुता ही हम सनातनियों की पहचान है। हमारी प्रकृति उदार है। हमारी सद्वृत्तियां संकुचित नहीं हो सकतीं। भारत विश्व का अभिभावक है। दुनिया में आज जो-जो और जहां-जहां है, वह हमारा है। उसकी जड़ें हमारे इतिहास में हैं। जो राम जी का काज कर रहे हैं, वे तो हैं ही हमारे, जो राम जन्म-भूमि का विध्वंस कर मंदिर पर गुंबद तामीर कर गये, वे भी हमारे ही इतिहास से निष्कृत लोग थे जो हज़ारों साल पहले की किसी शाप-श्रृंखला से अभिशप्त, इस धरती पर यत्र-तत्र-सर्वत्र भटकती आत्माओं की तरह विचरण कर रहे हैं। आइए, अशेष विष का पयवत पान कर अमृत का संधान करें और श्री राम की धरती पर उनके ही प्रतिमान रचें।

कभी एक जलता नारा चलता, छलता और उछलता मिलता था कि मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गया जय श्री राम! आज समय है कि ऐसे हर एक विषाक्त नारे और स्मृति को इस वक़्त ‘स्मृत’ कर जाइए। इस बात को याद रखिए कि ईश्वर की नज़र हर एक बशर और शज़र पर है। वही है कि जो सबका पुरस्कार और दंड निर्धारित करता है। आप अपना कार्य करिए परंतु ‘न हम भूलते हैं और न ही माफ़ करते हैं’ की इज़रायली नीति को अपने मन व अपनी आत्मा में पैबस्त करके उनको बिल्कुल भी मत भूलिए, जिनके कान आपके ‘पूर्वजों के अंतिम चीखों की ध्वनियों’ से गुंजायमान रहे हैं। चाहे गुरु दिग्विजयनाथ जी हों, अवैद्यनाथ जी हों या महंत परमहंस रामचंद्र दास जी जैसे यशोकाय व्यक्तित्व- ये सब के सब श्रद्धायुत स्मरण के अधिकारी हैं। आप अपने इन समस्त महानुभावों एवं महामनाओं को धन्यवाद ज्ञापित कीजिए और उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त कीजिए जिनके अथक प्रयास इस पथ के अथ के रथ बने परंतु आप उन धूर्तों को भी सदैव याद रखिए जिनके हाथ आपके पूज्य गुरुओं, संतों और राम-भक्त ‘पूर्वजों के रक्त’ में सने हुए हैं और जो आपकी सनातन संततियों को नष्ट करने के प्रतिबध्ता के साथ अनेकानेक नमाज़वादी षड्यंत्रों में संलिप्त रहे हैं…

शलोॐ…!