इतिहास गवाह है कि भारत की तथाकथित आज़ादी के बाद कांग्रेस के शासनकाल में प्रेस की स्वतंत्रता पर एक बार नहीं बल्कि कई बार कुठाराघात किए गए। विशेषकर नेहरू-गांधी परिवार ने प्रेस की स्वतंत्रता का दमन करने के लिए कभी काले क़ानून बनाकर तो कभी आपातकाल लगाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अपनी निरंकुश तानाशाही के तले रौंदा।
देश तथा हिंदू-विरोधी कृत्यों को करने के लिए आए-दिन तथाकथित ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ का घड़ियाली-रोना रोने वाले धूर्त कांग्रेसी गुंडों, लफंगों एवं आतंकवादियों द्वारा लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को कब-कब रौंदा गया, देश तथा दुनिया को इस विषय में जानना अति-आवश्यक है। तो आइए, गांधी-नेहरु परिवार के द्वारा पूर्व में प्रेस की आज़ादी को ख़त्म करने के लिए की गयी कुछ कोशिशों पर एक नज़र डालते हैं-
जवाहर लाल नेहरू:
भारत के अंतिम अंग्रेज़ वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना समेत अपने समय की असंख्य महिलाओं को समान रूप से अपने इश्क़-ए-ज़मज़म में डुबकियां लगवाने के लिए कुख्यात रहे भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भारत का कांग्रेसी-वर्ग अपना ‘रोल-मॉडल’ मानता है। तथ्यात्मक रूप से से यदि कांग्रेसियों के इस रोल-मॉडल का इज़रायली-टेस्ट किया जाए तो यही कांग्रेसी रोल-मॉडल ‘वर्तमान कांग्रेसी नीतियों का पितामह’ निकलकर सामने आता है।
कांग्रेसी गैंग चाहे कितना भी इनकार करे परंतु इतिहास के पन्नों में दर्ज़ ऐतिहासिक तथ्य इस बात की चीख़-चीखकर गवाही देते हैं कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लोकतंत्र के प्रहरी की भूमिका निभाने वाली ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ को अपनी हिटलरशाही के माध्यम से कुचलने का प्रथम प्रयास किया था। आपको यह जानकार बड़ा ही आश्चर्य होगा कि नेहरू के द्वारा तथाकथित आज़ाद भारत के संविधान का प्रथम संशोधन ही प्रेस की आज़ादी छीनने के लिए किया गया था!
दरअसल वर्ष 1947 के बाद तथाकथित आज़ाद भारत की दो प्रमुख पत्रिकाएं- ‘ऑर्गेनाइज़र’ एवं ‘क्रॉस-रोड्स’ नेहरू की देश एवं हिंदू-विरोधी नीतियों की खुलकर आलोचनाएँ किया करती थीं। इसमें से ‘क्रॉस-रोड्स’ नामक पत्रिका भारत की तत्कालीन ‘मद्रास स्टेट’ से रोमेश थापर के द्वारा संपादित की जाती थी। इस पत्रिका में नेहरू की आर्थिक एवं विदेश नीतियों के ख़िलाफ़ एक लेख लिखा गया था जिसके फलस्वरूप इस पत्रिका को तत्कालीन मद्रास की कांग्रेसी सरकार ने प्रतिबंधित करते हुए उन पर मुक़दमा क़ायम करवा दिया था। उनके ख़िलाफ़ दर्ज़ यह मामला उच्चतम न्यायालय तक गया और आख़िर में रोमेश थापर मद्रास सरकार के विरूद्ध मुक़दमे को जीत भी गए परंतु उसके बाद भी नेहरु ने धूर्तता एवं निर्लज्जता की पराकाष्ठता को पार करते हुए 12 मई, सन 1951 को संविधान के पहले संशोधन का प्रस्ताव पारित करके ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का गला घोंटकर अपनी तानाशाही प्रवृत्ति का ख़ुलेआम नंगा-नाच किया। संख्याबल के दम पर नेहरू के द्वारा संविधान-संशोधन का यह प्रस्ताव 25 मई, सन 1951 को सदन में बहुमत के साथ पारित हो गया जो वर्तमान में अभी-भी बरक़रार है।
इसके अलावा भी नेहरू ने ऐसे कई क़ानून पारित करवाए जिससे कि देश में ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ ख़तरे में पड़ गई। उदाहरण के लिए 23 अक्टूबर, सन 1951 को नेहरु ने “The Press (Objectionable Matters) Act-1951” पारित करवाकर सन 1908,1910, 1930 और 1931 में पारित किए गए पूर्ववर्ती अंग्रेज़ी क़ानूनों के समान ही तत्कालीन आज़ाद भारत की प्रेस की स्वतंत्रता को छिन्न-भिन्न करने का महापाप किया।
इस क़ानून के पारित होने के बाद पूरे भारत में इसका ज़बरदस्त विरोध हुआ था। उस समय की मीडिया संस्थाओं- The All India Newspapers Editor’s Conference (INEC), The Indian Federation of Working Journalists ( IFWJ) और The Indian Languages Newpapers Association (ILNA) ने इस क़ानून का डटकर विरोध किया लेकिन उसके बाद भी कांग्रेसियों के अनुसार भारत को तथाकथित आज़ादी दिलाने वाले भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने देश की जनता की आवाज़ अर्थात ‘मीडिया की आज़ादी’ को छीनते हुए अपने तानाशाही संख्याबल से प्रेस को प्रतिबंधित करने वाले इस काले क़ानून को पारित करवा दिया।
मैमूना बेगम (इंदिरा गांधी):
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की इकलौती बेटी मैमूना बेगम (इंदिरा गांधी) जिनका कि नाम भारतीय लोकतंत्र के हत्यारों की सूची में प्रथम स्थान पर आता है, अपने पिता जवाहरलाल नेहरू की तानाशाही विरासत को चरम-बिंदु पर ले जाने के लिए देश-दुनिया में कुख्यात रहीं। वर्ष 1947 के बाद के भारतीय इतिहास में यदि सरकारी हिटलर शाही का कोई दौर रहा है तो वह दौर मैमूना बेगम के द्वारा वर्ष 1975 में देश में लगाया गए आपातकाल का दौर था जब भारतीय नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के साथ-साथ सभी सरकारी, ग़ैर-सरकारी, सामाजिक, राजनैतिक, राष्ट्रीय एवं धार्मिक संगठनों की स्वतंत्रता को बंधक बनाकर उनसे जुड़े हुए व्यक्तियों एवं व्यक्तियों के समूहों को या तो जेलों में ठूंस दिया गया था या फिर उनकी सामूहिक हत्याएं करवाकर उनको सदा-सदा के लिए शांत करवा दिया गया था।
इसी क्रम में आपातकाल के दौरान मैमूना बेगम ने अपने तानाशाह पिता जवाहर लाल नेहरू के नक्शे-क़दम पर चलते हुए एक बार फिर से ‘प्रेस की आज़ादी’ को कुचलते हुए 26 जून सन 1975 को ‘Central Censorship Order’ और ‘Guidelines for the Press’ जारी किए। इतना ही नहीं 11 फ़रवरी, सन 1976 को मैमूना बेगम ने अपने आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए खंडित हो चुके लोकतंत्र के मंदिर में अलोकतांत्रिक तरीक़े से ‘Prevention of Publication of Objectionable Matters Act-1976’ को पारित करवाने के बाद लागू भी कर दिया। इस संबंध में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए कृपया संलग्न पीडीएफ़ डॉक्यूमेंट्स का संज्ञान लेने का कष्ट करें-
इससे पहले भी मैमूना बेगम ने वर्ष 1971 में, जब वह सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का प्रभार संभाल रही थीं, प्रेस की आज़ादी को समाप्त करने के लिए कई अलोकतांत्रिक क़दमों को उठाने के प्रयास किए थे। उस समय मैमूना बेगम ने एक ऐसे क़ानून का मसौदा तैयार करवाया था जिसमें कि समाचार-पत्रों के मालिकों के अधिकार समाप्त करके सरकारी प्रतिनिधियों को समाचार-पत्रों के बोर्ड में अधिकार प्रदान करवाने से सम्बंधित निंदनीय प्रावधान थे। यह बात अलग है कि मैमूना बेगम उस समय अपने इन कुप्रयासों में क़ामयाब नहीं हो पाईं और ये मसौदा क़ानून की शक्ल नहीं ले सका।
इसके बाद मैमूना बेगम ने सन 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान प्रेस की आज़ादी को यह कहते हुए समाप्त कर दिया कि युद्ध-काल में वह राष्ट्रीय नीति के विरूद्ध कार्य कर रहा है। इस दौरान मैमूना सरकार ने प्रेस की आज़ादी को ठीक उसी प्रकार से प्रतिबंधित कर दिया जिस प्रकार कभी ग़ुलाम-भारत में अंग्रेज़ लोग भारतीय प्रेस की आज़ादी को प्रतिबंधित किया करते थे।
राजीव गांधी:
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के धेवते एवं उनकी बेटी मैमूना बेगम के बड़े सुपुत्र राजीव गांधी जो कि वर्ष 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान अपनी एयर इंडिया की नौकरी से छुट्टी लेकर इसलिए पलायन कर गए थे ताकि कहीं उन्हें भारतीय वायुसेना के द्वारा युद्ध-ग्रस्त क्षेत्र में किसी कार्य के लिए न भेज दिया जाए, भी अपनी माँ मैमूना बेगम एवं नाना जवाहर लाल नेहरु की तरह ही प्रेस की आज़ादी और मुखरता को ग़लत मानते थे और उसे अपनी सरकार के अधीन ही रखना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपनी माँ मैमूना बेगम की मृत्यु के उपरांत मिले प्रचंड बहुमत का दुरुपयोग करते हुए वर्ष 1988 में लोकसभा से ‘Defamation Bill-1988’ पारित करवाकर प्रेस की आज़ादी को एक बार पुनः कुचलना चाहा परंतु राष्ट्रवादी पत्रकारों एवं जनता के तीव्र विरोध के चलते वह उस विधेयक को राज्यसभा में पेश न कर सके।
उद्धव ठाकरे:
वर्ष 2019 में भारतीय जनता पार्टी से अलग होने के बाद तथाकथित हिंदू-हृदय सम्राट कहे जाने वाले शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र के अपने धुर-विरोधी राजनैतिक दलों- एनसीपी एवं कांग्रेस के साथ मिलकर अपनी महाराष्ट्र सरकार गठित की। सरकार गठन के पश्चात कुछ समय तक भले ही उद्धव सरकार, शिवसेना की सरकार प्रतीत होती मालूम हुई परंतु जैसे-जैसे समय बीतता गया, उद्धव सरकार का कांग्रेसीकरण महाराष्ट्र एवं देश की जनता की आंखों के समक्ष उद्घाटित होता गया।
सरकार गठन के कुछ ही दिनों के अंदर महाराष्ट्र में विभिन्न स्थानों पर हिंदू-विरोधी षड्यंत्रों की बाढ़-सी आने लग गई। इसके बाद मराठी हिंदुओं के भयावह भविष्य की आहट पाकर रमेश सोलंकी जैसे धर्मनिष्ठ एवं राष्ट्रनिष्ठ शिवसैनिकों ने नैतिकता के शव के ऊपर चरमता को प्राप्त करने की चाह रखने वाली शिवसेना को लात मारकर अपने क्षत्रियत्व का मान रखा। अंततः महाराष्ट्र में हिंदू-द्रोह का वह नंगा नाच हुआ कि जिसके बारे में मात्र कल्पना करने से ही किसी सनातनी की रूह कांप जाती है।
चाहे सुशांत सिंह राजपूत मर्डर केस हो अथवा ईसाई मिशनरीज़ के इशारे पर पालघर में हुई संतों की निर्मम हत्या का मामला- महाराष्ट्र की उद्धव सरकार के द्वारा लगातार दोषियों को बचाने के शर्मनाक प्रयास किए जाते रहे। हद तो तब हो गई जब महाराष्ट्र की उद्धव सरकार एवं मुंबई पुलिस ने साथ मिलकर अंडरवर्ल्ड ड्रग-माफ़िया गैंग के एक आज्ञाकारी पालतू जानवर की भांति कार्य करना शुरू कर दिया। महाराष्ट्र सरकार एवं मुंबई पुलिस ने कांग्रेसी बेशर्मी को ओढ़कर अपनी चिर-परिचित सरकारी गुंडागर्दी का प्रयोग करते हुए मुंबई ड्रग-माफ़ियाओं के ऊपर सवाल खड़ा करने वाले आम बॉलीवुड कलाकारों एवं पत्रकारों को बड़ी ही बेशर्मी के साथ निशाना बनाना शुरू कर दिया। इस क्रम में पहले तो बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना राणावत के कार्यालय को मुंबई नगर पालिका के कर्मचारियों के द्वारा आनन-फानन में ढहा दिया गया उसके बाद रिपब्लिक-भारत मीडिया ग्रुप के सीईओ अर्णब गोस्वामी के ऊपर सैकड़ों एफ़आईआर दर्ज़ करवाकर उन्हें बेवजह परेशान किया गया। इतने के बाद भी महाराष्ट्र की कांग्रेसी उद्धव सरकार का मन नहीं भरा और उसने अपनी दाउद सेना के द्वारा अर्नब गोस्वामी की कार के ऊपर हमला करवाया और उन्हें फ़र्ज़ी टीआरपी घोटाले में फंसाने की नापाक चालें भी चली गईं। दिनांक 04 नवंबर, सन 2020 को तब हद ही हो गई जब अपहरणकर्ताओं की तरह बग़ैर किसी अदालती समन अथवा वारंट के मुंबई पुलिस ने उन्हें उनके घर से मार-पीट कर उठा लिया।
यह कहना तो अभी मुश्किल है कि आने वाले समय में महाराष्ट्र की कांग्रेसी उद्धव सरकार का क्या हश्र होने वाला है परंतु इतना तय है कि हिंदू-द्रोह की पराकाष्ठा को पार कर चुकी महाराष्ट्र सरकार एवं मुंबई पुलिस के इन कृत्यों ने उनकी मानसिक बौखलाहट एवं नष्ट होते आत्मबल के प्रत्यक्ष-दर्शन करवा दिए हैं। बहुत संभव है कि दुर्भावना एवं दुराग्रह से ग्रस्त महाराष्ट्र सरकार एवं मुंबई पुलिस आने वाले समय में अर्णब गोस्वामी को किसी फ़र्ज़ी एनकाउंटर में नुकसान पहुंचाने का प्रयास करें परंतु यह सनद रहे कि यदि भविष्य में ऐसा कुछ होता है तो उनका यह दुस्साहस आने वाले समय में उन पर बहुत भारी पड़ने वाला है। जल्द ही महाराष्ट्र की राजनीति में वह समय भी दृष्टिगोचर होगा कि जब शकुनि की तरह कांग्रेसी षड्यंत्रों में फंसकर धृतराष्ट्र की तरह आंखें बंद करके महाराष्ट्र की सत्ता पर आसीन सत्ता-लोलुप उद्धव ठाकरे के कुनबे में उनका राजनैतिक-तर्पण करने के लिए भी लोगों का टोटा पड़ जाएगा।
शलोॐ…!