वे मौक़े जब रूस ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत का समर्थन किया…

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यह इंसान की फ़ितरत होती है कि वह दूसरे के एक असहयोग के प्राप्त होने पर उसके द्वारा पूर्व में किए गए अन्य समस्त सहयोगों को विस्मृत कर देता है। वह यह समझने का प्रयत्न नहीं करता है कि सामने वाला यदि किसी मौक़े पर उसका सहयोग नहीं कर पाया है तो उसके पीछे उसकी क्या मजबूरी रही होगी? यही बात भारत और रूस के बीच के संबंधों के ऊपर भी सटीक बैठती है।

जैसा कि हम जानते हैं कि अभी तक रूस और यूक्रेन की जंग में भारत की भूमिका तटस्थ ही रही है। भारत ने 4 दिनों के अंदर लगातार दूसरी बार संयुक्त राष्ट्र में रूस के ख़िलाफ़ वोटिंग से दूरी बना ली। दिनांक 28 फ़रवरी, 2022 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने यूक्रेन संकट पर आपातकालीन सत्र बुलाया था। इससे पहले दिनांक 25 फ़रवरी, 2022 को भी यूक्रेन से रूस की सेना वापसी को लेकर प्रस्ताव लाया गया था। रूस के ख़िलाफ़ लाए गए दोनों प्रस्तावों पर वोटिंग से भारत दूर हो गया।

भारत और रूस के संबंध बहुत पुराने हैं। दोनों देश कई मौक़ों पर एक-दूसरे का समर्थन करते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी जब-जब भारत किसी मुद्दे पर घिरा है तो रूस ने ही उसका साथ दिया है। अब तक रूस ने भारत के समर्थन में 4 बार वीटो पावर का इस्तेमाल किया है जो कि उसके द्वारा किसी भी अन्य देश के लिए वीटो पावर का इस्तेमाल करने का विश्व रिकॉर्ड है। इस आलेख में बाबा इज़रायली आपको विस्तार से बता रहे हैं कि कि रूस ने पूर्व में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद एवं अन्य जगह किन-किन बड़े मुद्दों पर भारत को अपना खुलकर समर्थन प्रदान किया है-

वर्ष 1955-57 में कश्मीर मुद्दे पर:

वर्ष 1955 में तत्कालीन सोवियत संघ (USSR) के तत्कालीन नेता निकिता ख़्रुश्चेव भारत दौरे पर आए थे। तब उन्होंने कहा था कि मास्को बस ‘सीमा पार’ है और कश्मीर मामले में कोई भी परेशानी होने पर उसे बस हमें बताना है। इसके बाद वर्ष 1957 में पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पेश करते हुए यह मांग की थी कि कश्मीर में विसैन्यीकरण के लिए संयुक्त राष्ट्र की सेना उतरनी चाहिए। उस समय तत्कालीन सोवियत संघ ने वीटो पावर का इस्तेमाल किया और भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान के इस प्रस्ताव को गिरा दिया।

वर्ष 1961 में गोवा मुद्दे पर:

भारत को तथाकथित आज़ादी मिलने के बाद भी करीब 14 वर्षों तक गोवा आज़ाद नहीं हो सका था। वहां वर्ष 1961 तक पुर्तगालियों का ही कब्ज़ा था। गोवा की आज़ादी के लिए प्रदर्शन हो रहे थे। पुर्तगाल ने उस समय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को एक पत्र लिखते हुए इसे अपना हिस्सा बताने की कोशिश की थी। रिपोर्ट्स के मुताबिक़, उस समय ख़्रुश्चेव ने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जनाब नेहरुद्दीन अल-जवाहिरी को एक टेलीग्राम भेजते हुए गोवा में भारत की कार्यवाही को सही ठहराया था।

इसके बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पुर्तगाल एक प्रस्ताव लेकर आया और मांग की कि भारत को गोवा से अपनी सेना वापस बुला लेनी चाहिए। इस प्रस्ताव को अमेरिका, फ़्रांस और ब्रिटेन ने समर्थन दिया लेकिन तत्कालीन सोवियत संघ ने वीटो लगाकर पुर्तगाल के उस प्रस्ताव को गिरा दिया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में तत्कालीन सोवियत संघ के इस समर्थन से ही भारत को मज़बूती मिली और आखिरकार 19 दिसंबर, 1961 को गोवा आज़ाद हुआ।

वर्ष 1961 में भारत-पाकिस्तान मुद्दे पर:

वर्ष 1962 में तत्कालीन सोवियत संघ ने 100वीं बार वीटो पावर का इस्तेमाल किया और उस बार यह इस्तेमाल भारत के समर्थन में किया। दरअसल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आयरलैंड एक प्रस्ताव लेकर आया था कि जिसमें कि भारत-पाकिस्तान से बातचीत से मसला सुलझाने की अपील की गई थी।

इस प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र के 7 सदस्यों ने समर्थन दिया था जिनमें से अमेरिका, फ़्रांस, ब्रिटेन और चीन स्थायी सदस्य थे। भारत ने इस प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया। उस समय तत्कालीन सोवियत संघ ने फिर से वीटो पावर का इस्तेमाल किया और आयरलैंड के उस प्रस्ताव को गिरा दिया।

वर्ष 1971 में कश्मीर मुद्दे पर:

पाकिस्तान हमेशा से कश्मीर मसले को अंतर्राष्ट्रीय बनाने की कोशिश में लगा था। वर्ष 1965 के युद्ध के बाद भी पाकिस्तान ने कई बार इसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश की लेकिन रूस की वजह से वह कभी-भी इसमें सफल नहीं हो पाया। हालांकि वर्ष 1971 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच बांग्लादेश की मुक्ति को लेकर युद्ध हो रहा था, तब कश्मीर मुद्दा एक बार फिर से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आया। उस समय तत्कालीन सोवियत संघ ने एक बार फिर से अपनी वीटो पावर का इस्तेमाल करते हुए भारत के समर्थन को बरक़रार रखा। तत्कालीन सोवियत संघ के उस वीटो की मदद से ही कश्मीर मुद्दा फिर से कभी अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाया और हमेशा भारत-पाकिस्तान का ही मुद्दा बना रहा।

वर्ष 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध पर:

वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अमेरिका ने भारत को डराने के लिए अपना सातवां नौसैनिक बेड़ा भेज दिया था। अमेरिकी नौसेना के सातवें बेड़े के भारत की ओर बढ़ने की ख़बर मिलने के बाद भारत ने तत्कालीन सोवियत संघ से मदद मांगी थी। अमेरिकी नौसेना को बंगाल की खाड़ी की ओर बढ़ता देख कर तत्कालीन सोवियत संघ ने भारत की मदद के लिए अपनी परमाणु क्षमता से लैस पनडुब्बी और विध्वंसक जहाज़ों को प्रशांत महासागर से हिंद महासागर की ओर भेज भेज कर अमेरिका को चेतावनी जारी की थी कि अगर उसने भारत की ओर देखने का दुस्साहस भी किया तो वह अपने मित्र की सहायता करने में एक क़दम भी पीछे नहीं हटेगा।

अन्य मुद्दों पर:

उपरोक्त मुद्दों के अलावा रूस ने अनेक बार अन्य प्रस्तावों पर भी भारत का समर्थन किया है। चाहे नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह (NSG) में भारत को शामिल करवाने का मुद्दा रहा हो या फिर मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (MTCR) समूह में भारत को शामिल करवाने का मुद्दा, रूस ने सदैव भारत का समर्थन करके उसे इन दोनों महत्वपूर्ण समूहों में एंट्री दिलवाने का भरसक प्रयत्न किया। इसके अलावा रूस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत को स्थाई सदस्यता दिलवाने के लिए भी सदैव अपना समर्थन प्रदान करता रहा है। इसके अलावा भारत की रक्षा ज़रूरतों को शुरू से लेकर अभी तक हर स्तर पर पूरी करने के लिए भी रूस हमेशा तैयार खड़ा दिखाई पड़ा है।

रूस के द्वारा पूर्व में उपरोक्त सहयोगों को प्रदान करने के पश्चात भी आज कुछ ऐसे भारतीय लोग हैं जो केवल एक मुद्दे- ‘वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान सहयोग न करने’ के कारण उसको शंका की दृष्टि से देखते हैं। यहां पर बाबा इज़रायली का मत है कि वर्ष 1962 में चीन से अपने संबंधों के कारण यदि रूस भारत की मदद नहीं कर पाया तो भारतीय लोगों को उसके द्वारा किए गए अन्य सहयोगों को एकदम से दरकिनार करके उसके प्रति दुर्भावना नहीं पालनी चाहिए और उसके द्वारा ऐसा किए जाने के पीछे रही उसकी मजबूरियों को समझना चाहिए।

भारतीयों को रूस की उस मजबूरी को आज के इस परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश करनी चाहिए कि यूक्रेन, ऐसा देश जो कि पूर्व में भारत के सदैव विरोध में खड़ा रहा है, आज भारत अपनी मजबूरी के कारण उसके विरोध में रूस के समर्थन में भी खुलकर नहीं खड़ा हो पा रहा है। भारत की तो यूक्रेन से सीधी मित्रता भी नहीं है लेकिन भारत की अमेरिका, ब्रिटेन जैसे यूक्रेन से मित्रता रखने वाले अन्य देशों से मित्रता है। जब भारत अपने विरोधी देश यूक्रेन के इन मित्र देशों से अपने संबंधों की मजबूरी के कारण रूस को अपना खुला समर्थन नहीं दे पा रहा है तो ज़रा सोचिए कि चीन तो रूस का सीधा-सीधा मित्र था! उस स्थिति में फिर वह भारत को अपना प्रत्यक्ष समर्थन कैसे प्रदान कर सकता था?

इसीलिए कहते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति बहुत ही जटिल विषय होता है। इसको समझने के लिए भावुक हृदय की नहीं बल्कि समझदार मस्तिष्क की आवश्यकता होती है। वैसे यहां पर बाबा इज़रायली का मत है कि दुनिया में कोई भी देश न तो किसी अन्य देश का दुश्मन होता है और न ही किसी अन्य देश का मित्र! यह केवल देशों के ‘निजी स्वार्थ’ होते हैं जो उन्हें समय-समय पर अन्य देशों के ‘मित्र’ अथवा ‘शत्रु’ के पाले में लाकर खड़ा कर देते हैं। यदि किसी देश का कोई ‘मित्र’ होता है तो वह मित्र, ‘वह देश स्वयं’ होता है। किसी देश की यह केवल ‘आर्थिक और सामरिक शक्ति’ ही होती है जो उस देश को अन्य देशों की ‘मित्रता’ के पाले में लाकर खड़ा करने का ‘भ्रम’ उत्पन्न करती है और यह ‘मित्रता का भ्रम’ केवल तभी तक अस्तित्व रहता है जब तक वह देश शक्तिशाली बना रहता है।

शलोॐ…!