हिंदुओं और यहूदियों का रिश्ता एकदम क़ुर’आन सम्मत है…

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मज़हबी अक़ाइद (धार्मिक दृष्टि) से तो नहीं लेकिन मौजूदा हालातों के मद्देनज़र हिंदुओं और यहूदियों के आपसी रिश्ते का बेहतर होना, दो सगे भाइयों के रिश्ते से भी ज़्यादा मुक़द्दस और ज़रूरी हो गया है। ऐसा इसलिए क्योंकि मौजूद वक़्त में इन दोनों के दोस्त भले ही एक न हों लेकिन इनके दुश्मन एक ही हैं जो उन्हें नेस्तनाबूद कर देने की नीति पर अमल कर रहे हैं।

वैसे अगर देखा जाए तो हिंदुओं और यहूदियों का यह रिश्ता क़ानून-ए-शरीयत के लिहाज से भी जायज़ है। ऐसा इसलिए क्योंकि ईमानवालों की आसमानी किताब के तीसरे सूरह, सूरह आले-इमरान की आयत नंबर 64, हिंदुओं और यहूदियों को ऐसा रिश्ता क़ायम करने की प्रेरणा देती है। देखिए-

“تَعَالَوْا۟ إِلَىٰ كَلِمَةٍ سَوَآءٍۭ بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمْ…”

(तालव इला कलिमतिन सवा इम बैननौव बैनुकुम…)

अर्थात, आओ उन बातों की तरफ जो हम में और तुम में एक जैसी हैं…

चित्र: आयत नंबर 64, सूरह आले-इमरान , क़ुर’आन

तो जैसा कि हमने इस आयत में देखा कि आसमानी किताब में उसके अनुआयियों और उनके दोस्तों से आपसी असमानताओं को छोड़कर केवल समानताओं के आधार पर एक झंडे के नीचे आकर दीन को मज़बूत करने की बात कही गई है। अतः यदि हिंदुओं के सभी पंथ, संप्रदाय एवं और यहूदी समुदाय भी आसमानी किताब की इस आयत में वर्णित बात से सबक़ लेकर एकता की डोर में मज़बूती के साथ बंध जाते हैं तो यह उनके लिए बेहतर होगा। ऐसा करने से आने वाले समय में उनके हितों के संदर्भ में बहुत अच्छे परिणाम निकल सकते हैं।

परवरदिगार-ए-आलम से हमारी दुआ है कि वह हिंदुओं और यहूदियों को इस ‘यकसानियत’ अर्थात ‘एकात्मता’ को समझने, उस पर अमल करने और इस मुक़द्दस रिश्ते को ‘आठवें आसमान’ पर पहुंचाने की जज़ा-ए-ख़ैर अता फ़रमाए… आह-मीन…!

शलोॐ…!