‘यूपी का जंगलराज’: बलात्कार करने के बाद सिपाही बोला, ‘पहाड़ी छोरी अब ले उत्तराखंड…’!

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उत्तराखंड राज्य का गठन हुए लगभग दो दशक से अधिक का समय बीत चुका है लेकिन आज भी राज्य के आंदोलनकारियों के मस्तिष्क से 02 अक्टूबर, 1994 को उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर नगर में हुए ‘रामपुर तिराहा कांड’ की तस्वीरें विस्मृत नहीं हो पाई हैं। ‘रामपुर तिराहा कांड’ को ‘मुज़फ़्फ़रनगर कांड’ भी कहा जाता है। इस आलेख में बाबा इज़रायली आपको तत्कालीन नमाज़वादी सरकार द्वारा अंजाम दिए गए ‘रामपुर तिराहा कांड’ के बारे में विस्तार से बताने जा रहे हैं।

मुज़फ़्फ़रनगर के रामपुर तिराहे पर 2 अक्टूबर, 1994 के दिन हुई नमाज़वादी बर्बरता को याद करके आज भी आंदोलनकारियों की रूहें कांप जाती हैं। उस रात न केवल कई लोगों ने अपनी जानें गंवाईं बल्कि तमाम महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार करके उनकी ज़िंदगियां भी तबाह कर दी गईं। ढाई दशक पूर्व अंजाम दी गई इस इस बर्बर नमाज़वादी घटना के द्वारा लोगों को मिले ज़ख़्म अभी भी हरे के हरे ही हैं। मुज़फ़्फ़रनगर के रामपुर तिराहे पर हुई इस बर्बरता के मामले में ढाई दशक बीतने के बाद भी इसके दोषियों को सज़ा नहीं मिल पाई है।

यह पूरा घटनाक्रम 1 अक्टूबर, 1994 की रात को शुरू हुआ जब उत्तर प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र (वर्तमान उत्तराखंड) के आंदोलनकारी उत्तर प्रदेश से अलग एक पहाड़ी प्रदेश की मांग कर रहे थे। इसके लिए वे शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के उद्देश्य से पर्वतीय क्षेत्र की अलग-अलग जगहों से 24 बसों में सवार हो कर 1 अक्टूबर को दिल्ली जाने के लिए रवाना हुए। देहरादून से आंदोलनकारियों के रवाना होते ही प्रशासन द्वारा उनको रोकने की कोशिश की जाने लगी। इस दौरान उत्तर प्रदेश पुलिस ने रुड़की के गुरुकुल नारसन बॉर्डर पर नाकेबंदी की लेकिन आंदोलनकारियों की ज़िद के आगे प्रशासन को झुकना पड़ा और फिर आंदोलनकारियों का हुजूम वहां से दिल्ली के लिए रवाना हो गया। जब ये आन्दोलनकारी मुज़फ़्फ़रनगर पहुंचे तो पुलिस ने उन्हें रामपुर तिराहे पर रोकने की योजना बनाई और पूरे इलाके को सील करके आंदोलनकारियों को रोक दिया।

आंदोलनकारियों को पुलिस ने मुज़फ़्फ़रनगर में रोक तो लिया लेकिन वे दिल्ली जाने की ज़िद पर अड़ गए। उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन मुखिया मुलायम सिंह यादव को जब इस बात की जानकारी हुई तो वे आग-बबूला हो गए और उन्होंने अयोध्या कारसेवकों की तर्ज़ पर इन आंदोलनकारियों को बलपूर्वक कुचलने के हुक्म जारी कर दिए। उसके बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने अयोध्या कारसेवक कांड की तरह बर्बरता की सभी हदें पार करते हुए आंदोलनकारियों को दौड़ा-दौड़ाकर लाठियों से पीटना शुरू कर दिया। लाठीचार्ज होते ही आंदोलनकारियों ने “बाड़ी-मड़ुआ खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे…” जैसे पहाड़ी अस्मिता से जुड़े हुए नारे लगाने शुरू कर दिए। ये नारे सुनते ही उत्तर प्रदेश पुलिस का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया और उसने आंदोलनकारियों के ऊपर अपनी रायफ़लों के मुंह खोल दिए।

चित्र-: रामपुर तिराहा कांड, मुज़फ़्फ़रनगर के बारे में अगले दिन प्रकाशित हुई दैनिक अमर उजाला की मुख्य ख़बर

देखते ही देखते मुज़फ़्फ़रनगर के रामपुर तिराहे पर धड़ा-धड़ करके राज्य प्रदर्शनकारियों की लाशें गिरने लग गईं। मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक़ 15 से 18 हिंदू प्रदर्शनकारी मौलाना मुलायम के आदेश पर मार डाले गए जबकि सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में की गई हत्याओं की संख्या 26 बताई। प्रत्यक्षदर्शियों की मानें तो इस घटना में 150 से अधिक प्रदर्शनकारियों की हत्याएं की गई थीं लेकिन मृतकों की इतनी अधिक संख्या को छुपाने और पुलिसिया बर्बरता पर पर्दा डालने के लिए अयोध्या के कारसेवक कांड की तर्ज़ पर मृतकों की लाशों को घसीटकर दूर के खेतों में गाढ़ दिया गया था। अगले दिन दैनिक अमर उजाला समाचार-पत्र में 150 लोगों के लापता होने की ख़बर छपी थी। संभवतः ये लापता लोग वही अभागे हिंदू प्रदर्शनकारी लोग थे जिनकी हत्याएं करके उनकी लाशों को खेतों में गाढ़ दिया गया था।

चित्र: रामपुर तिराहा कांड, मुज़फ़्फ़रनगर में पुलिसिया दमन से पहले और उसके बाद की कुछ हृदय-विदारक तस्वीरें

सरकारी आंकड़ों के अनुसार उस दिन पुलिस की गोलियों से देहरादून स्थित नेहरू कॉलोनी निवासी रवींद्र रावत उर्फ़ गोलू, भालावाला निवासी सतेंद्र चौहान, बदरीपुर निवासी गिरीश भदरी, जबपुर निवासी राजेश लखेड़ा, ऋषिकेश निवासी सूर्यप्रकाश थपलियाल, ऊखीमठ निवासी अशोक कुमार और भानियावाला निवासी राजेश नेगी ने इस हृदय-विदारक घटना में अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था। इनके अलावा लगभग दो दर्ज़न से अधिक प्रदर्शनकारी इस गोलीकांड में बुरी तरह से घायल हुए थे।

इसके अतिरिक्त इस घटना में उत्तर प्रदेश पुलिस में शामिल कुछ हिंसक जिहादी भेड़ियों ने मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए महिला प्रदर्शनकारियों के साथ दुर्दांत तरीक़े से सामूहिक बलात्कार जैसे निंदनीय कुकृत्यों को भी अंजाम दिया था। एक प्रत्यक्षदर्शी के मुताबिक़ आंदोलन में शामिल कई महिलाओं को पुलिस की सरकारी गाड़ियों के अंदर खींचकर उनके साथ पूरी रात सामूहिक दुष्कर्म किए गए। इन्हीं बलात्कारों की एक घटना में पुलिस के एक बलात्कारी सिपाही ने पीड़िता से बलात्कार करने के बाद उससे कहा था, “पहाड़ी छोरी अब ले उत्तराखंड…”!

सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि नमाज़वादी गुंडों के द्वारा 7 महिलाओं से सामूहिक बलात्कार किए गए थे और 17 महिलाओं के साथ छेड़-छाड़ अथवा बलात्कार करने के प्रयास हुए थे। वरिष्ठ पत्रकार नीलम गुप्ता ने इस घटना की जीवंत रिपोर्टिंग करते हुए दैनिक समाचार-पत्र ‘जनसत्ता’ में एक विस्तृत आलेख प्रदान किया था जिसका कि सार यह था कि इस घटना में महिलाओं के साथ अंजाम दिए गए श्रृंखलाबद्ध बलात्कार, पुलिस के सिपाहियों की क्षणिक यौन-उत्तेजना के परिणाम नहीं थे बल्कि ये बलात्कार प्रदर्शनकारियों के हौसलों को तोड़ने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस के कुछ अधिकारियों के द्वारा क्रियान्वित की गई एक पूर्व-नियोजित रणनीति का हिस्सा थे जो कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन तानाशाह एवं रेप जिहाद के समर्थक मौलाना मुलायम सिंह के द्वारा तैयार की गई थी।

चित्र-: रामपुर तिराहा कांड, मुज़फ़्फ़रनगर के बारे में दैनिक अमर उजाला की अन्य ख़बरें

मुज़फ़्फ़रनगर में हुई इस बर्बरता के बाद राज्य आंदोलनकारियों एवं पहाड़ी जनमानस में और अधिक तेज़ी से ग़ुस्सा भड़क गया और उत्तर प्रदेश से अलग राज्य की मांग ने और अधिक प्रचंडता के साथ ज़ोर पकड़ लिया। पृथक राज्य ‘उत्तराखंड’ की मांग को लेकर प्रदेश भर में धरने और विरोध प्रदर्शनों का दौर चलने लगा। आंदोलन की आग इस क़द्र भड़की कि युवाओं, बुज़ुर्गों के साथ-साथ स्कूली बच्चे भी आंदोलन की आग में कूद पड़े। आख़िरकार ‘रामपुर तिराहा कांड’ की घटना के क़रीब 6 वर्षों बाद आंदोलनकारियों का संघर्ष रंग लाया और अटल बिहारी वाजपेई जी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने 9 नवंबर, 2000 को उत्तर प्रदेश से पृथक ‘उत्तरांचल’ राज्य बनाने की अपनी संकल्पबद्धता को पूर्णता प्रदान की।

चित्र-: उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव रामपुर तिराहा कांड के खलनायक थे

‘रामपुर तिराहा कांड’ मुक़दमे की सुनवाई के दौरान इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस घटना में हत्या एवं दुष्कर्म जैसे संगीन अपराधों को मानवाधिकारों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन मानते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को मृतकों के परिजनों व दुष्कर्म पीड़ित महिलाओं को 10-10 लाख रुपये मुआवज़े और छेड़छाड़ की शिकार हुई महिलाओं के साथ ही पुलिस हिरासत में उत्पीड़न के शिकार हुए आंदोलनकारियों को 50-50 हजार रुपये मुआवज़े के रूप में प्रदान करने का आदेश दिया था। साथ ही इस मामले की जांच को सीबीआई को सौंपने के भी आदेश पारित किए थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस आदेश के ख़िलाफ़ अभियुक्तों और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा चार विशेष अनुमति याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की गईं जिसके पश्चात दुर्भाग्यपूर्ण तरीक़े से 13 मई 1999 को उच्चतम न्यायालय ने पीड़ितों को मुआवज़ा दिए जाने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को निरस्त कर दिया था।

चित्र-: रामपुर तिराहा कांड, मुज़फ़्फ़रनगर में अंजाम दिए गए बलात्कारों के विषय में एक ब्लॉग के कुछ अंश

2 अक्टूबर, 1994 को रामपुर तिराहा में हुए कांड के बाद इस मामले को लेकर 7 अक्टूबर 1994 को संघर्ष समिति ने आधा दर्जन याचिकाएं इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दाखिल की थीं। उसके बाद 6 दिसंबर, 1994 को न्यायालय ने सीबीआई से खटीमा, मसूरी और रामपुर तिराहा कांड पर रिपोर्ट मांगी जिस पर काफ़ी समय बाद सीबीआई ने कोर्ट में अपनी रिपोर्ट सौंपी। सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि रामपुर तिराहा कांड समेत अन्य जगहों पर 7 सामूहिक दुष्कर्म, 17 महिलाओं से छेड़छाड़ और 26 हत्याएं की गईं। सीबीआई के पास इस घटना से संबंधित कुल 660 शिकायतें की गईं। 12 मामलों में पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गईं। मुज़फ़्फ़रनगर के इस ‘रामपुर तिराहा कांड’ को हुए आज ढाई दशक से अधिक समय बीत चुका है लेकिन अभी तक इस कांड में शामिल नमाज़वादी अपराधियों को उनके कुकृत्यों की सज़ा नहीं मिल पाई है।

इसलिए उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश की जनता को चाहिए कि वह अपना मतदान करते समय इस बात को सुनिश्चित करे कि उसके द्वारा दिया जाने वाला मत किसी भी स्थिति में गुंडों, अराजक-तत्वों एवं बलात्कारियों को पुनः किसी राज्य अथवा देश की सत्ता में स्थापित न कर पाए। ऐसा होने की स्थिति में भविष्य में मुज़फ़्फ़रनगर के ‘रामपुर तिराहा कांड’ जैसे अन्य दु:खद कांडों की पुनरावृत्ति होने की संभावनाएं एक बार फिर से जन्म ले सकती हैं।

शलोॐ…!