‘यूपी का जंगलराज’: जब मुलायम सिंह ने घोंपा था अजीत सिंह की पीठ में खंज़र…

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राष्ट्रीय लोकदल के पूर्व प्रमुख एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी अजीत सिंह विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार से लेकर मनमोहन सिंह तक की हर केंद्र सरकार में मंत्री रहे लेकिन उनका उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का सपना कभी साकार नहीं हो सका। हालांकि वर्ष 1989 के चुनाव में जनता दल की जीत के बाद अजीत सिंह का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए घोषित हो चुका था लेकिन नमाज़वादी पार्टी के नाम से कुख्यात समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने धोखे से भरा हुआ ऐसा दांव चला कि उनका उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का सपना अधूरा रह गया और मुलायम उनकी पीठ में खंजर भोंक कर उत्तर प्रदेश की सत्ता पर क़ाबिज़ हो बैठे।

दरअसल वर्ष 1980-90 के दशक में उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी, जन मोर्चा, लोकदल (अ) और लोकदल (ब) ने मिलकर जनता दल का गठन किया था। इन चार दलों की एकजुट ताक़त ने असर दिखाया और वर्ष 1989 में हुए उत्तर प्रदेश चुनाव में एक दशक के बाद विपक्ष को 208 सीटों पर जीत मिली थी। उस समय अविभाजित उत्तर प्रदेश में कुल 425 विधानसभा सीटें थीं जिसके चलते जनता दल को बहुमत के लिए कुछ अन्य विधायकों की आवश्यकता थी।

उत्तर प्रदेश में जनता दल की ओर से मुख्यमंत्री पद के दो उम्मीदवार थे- लोकदल (ब) के नेता मुलायम सिंह यादव और चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत की दावेदारी कर रहे उनके पुत्र चौधरी अजीत सिंह! सूबे में जनता दल की जीत के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के द्वारा मुख्यमंत्री पद के लिए चौधरी अजीत सिंह का नाम लगभग-लगभग तय हो चुका था। चौधरी अजीत सिंह शपथ लेने की तैयारियां कर ही रहे थे कि मुलायम सिंह यादव ने उनकी पीठ में खंजर भोंक दिया। मुलायम सिंह यादव ने ऐसा दांव चला कि जनमोर्चा के विधायक अजीत सिंह के ख़िलाफ़ खड़े हो गए और मुलायम को मुख्यमंत्री बनाने की मांग करने लगे। अंततः अजीत सिंह मुख्यमंत्री पद की शपथ नहीं ले पाए और मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए।

उस समय केंद्र में भी जनता दल की सरकार बनी थी और विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री थे। उत्तर प्रदेश में पार्टी की जीत के साथ ही उन्होंने घोषणा कर दी थी कि अजीत सिंह मुख्यमंत्री होंगे और मुलायम सिंह यादव उप-मुख्यमंत्री। उनकी इस घोषणा के पश्चात लखनऊ में अजीत सिंह की ताजपोशी की तैयारियां चल रही थीं कि मुलायम सिंह यादव ने उप-मुख्यमंत्री पद ठुकरा कर मुख्यमंत्री पद की दावेदारी प्रस्तुत कर दी। तब प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने फ़ैसला किया कि मुख्यमंत्री पद का फ़ैसला लोकतांत्रिक तरीके से विधायक दल की बैठक में गुप्त मतदान के ज़रिए से होगा। इसके बाद फिर जो हुआ वह भारतीय राजनीति के सबसे बड़े धोखों की दुनिया का एक अहम किस्सा है।

पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के आदेश पर मधु दंडवते, मुफ़्ती मोहम्मद सईद और चिमन भाई पटेल बतौर पर्यवेक्षक उत्तर प्रदेश भेजे गए। केंद्र के द्वारा भेजे गए पर्यवेक्षकों के द्वारा एक बार फिर से यह कोशिश की गई कि मुलायम सिंह यादव उप-मुख्यमंत्री का पद स्वीकार कर लें लेकिन मुलायम सिंह इसके लिए तैयार नहीं हुए। इसके पीछे की मुख्य वजह यह थी कि मुलायम ने बेहद ख़ामोशी के साथ अजीत सिंह के विश्वास को तोड़ते हुए एक तगड़ा दांव खेल दिया था। मुलायम सिंह ने बाहुबली डी. पी. यादव की मदद से अजीत सिंह के खेमे के 11 विधायकों को तोड़कर अपने पक्ष में कर लिया था। इस काम में बेनी प्रसाद वर्मा ने मुलायम सिंह की मदद की थी।

विधायक दल की बैठक के दिन सभी विधायकों को लेकर गाड़ियों का काफ़िला विधानसभा में मतदान स्थल पर पहुंचा। विधायक को अंदर करने के बाद विधानसभा के सारे दरवाज़े बंद कर दिए गए। विधानसभा के बाहर जनता दल के कार्यकर्ताओं का हुजूम लगातार अपने-अपने नेताओं के पक्ष में ‘ज़िंदाबाद’ के नारे लगा रहा था। तिलक हॉल के बाहर दोनों नेताओं के समर्थक बंदूकें लहरा रहे थे। तय समय पर मतदान हुआ और पहले से तय योजना के मुताबिक़ अजीत सिंह, मुलायम सिंह से महज़ पांच मतों से हार गए।

इस तरह उत्तर प्रदेश में गठबंधन की जीत सुनिश्चित करने में सबसे प्रमुख भूमिका निभाने वाले अजीत सिंह को मुलायम सिंह यादव के द्वारा ऐतिहासिक रूप से धोखा दे दिया गया था। एक झटके में अजीत सिंह के हाथ से उत्तर प्रदेश की सत्ता को छीन कर मुलायम सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए। 05 दिसंबर, 1989 मुलायम ने पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और उसके बाद तमंचे की नोंक पर उत्तर प्रदेश में नमाज़वादी इस्लामी हुक़ूमत की नींव रखने में कामयाबी हासिल की।

उत्तर प्रदेश में सरकार गठित करने के लिए भले ही चार पार्टियों ने मिलकर जनता दल बनाया था लेकिन उसमें शामिल नेताओं के कभी दिल नहीं मिले थे। दरअसल गुंडों, लफंगों और बलात्कारियों के दम पर राजनीति करने वाले मुलायम सिंह को जनता दल की डकैती उन्मूलन की नीतियां बिल्कुल भी पसंद नहीं आ रही थीं। इस वजह से ही विश्वनाथ प्रताप सिंह को पूर्व में भी मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था। गुंडागर्दी के कारण ही वे मुलायम को बिल्कुल भी पसंद नहीं करते थे और अजीत सिंह इस मामले में मुलायम सिंह से कई गुने अधिक बेहतर थे। यही कारण था कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के लिए अजीत सिंह के नाम को मुलायम पर वरीयता देते हुए उन्हें अपनी ओर से मुख्यमंत्री पद का दावेदार नियुक्त किया था लेकिन यह अजीत सिंह की असावधानी रही कि वे मुलायम सिंह जैसे लफंगे की धूर्तता को समय रहते नहीं जान पाए और आख़िरी समय पर उसकी साज़िश का शिकार बन गए।

यदि वर्ष 1989 में अजीत सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए होते तो पूज्यनीय बाबा चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत का संभवतः उस हद तक इस्लामीकरण नहीं हुआ होता जैसा कि नमाज़वादी मुखिया मौलाना मुलायम के समय में हुआ। यदि अजीत सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने होते तो उत्तर प्रदेश का इतिहास कारसेवक कांड, रामपुर तिराहा कांड और गेस्ट हाउस कांड जैसे निंदनीय नमाज़वादी कुकृत्यों के कारण कलंकित नहीं हुआ होता !

विधि की नियति देखिए कि जिन नमाज़वादी षड्यंत्रों ने चौधरी अजीत सिंह समेत चौधरी चरण सिंह जी की गरिमामई राजनैतिक विरासत को ठिकाने लगा दिया, आज उन्हीं चौधरी अजीत सिंह की लायक़ (?) औलाद अपने पिता एवं बाबा के विश्वासघाती मौलाना मुलायम सिंह की औलाद के साथ हाथ मिलाकर उत्तर प्रदेश चुनावों में सभी हिंदुओं के साथ ग़द्दारी करती हुई देखी जा रही है। अब यह प्रदेश के हिंदू समुदाय को तय करना है कि वह इन दोनों रंगा-बिल्ला की जोड़ी को अपना समर्थन प्रदान करके चौधरी साहब की राजनैतिक विरासत को पाताल में पहुंचाएगी या फिर उनके स्वप्नों को सामर्थ्य की डोली चढाने वाली भारतीय जनता पार्टी को अपना समर्थन प्रदान करके दिवंगत पुण्यात्माओं को अपनी सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करेगी…

शलोॐ…!