जॉर्डन नदी, जिसे कि स्थानीय इज़रायली भाषा हिब्रू में ‘नहर-हा-यरदन’ (נְהַר הַיַּרְדֵּן) भी कहा जाता है, वह नदी है जिसकी घाटियों और मैदानों ने ‘बनी इज़रायल’ यानी कि इज़रायल की औलादों को बेशुमार नेमतें बख़्शीं और उन्हें एक बड़े भू-भाग पर ग़ालिब किया। उसके बाद दुर्भाग्यवश यहूदियों को सेकुलरिज़्म के कीड़े ने काट लिया और फिर वे 2,000 साल से अधिक समय तक पूरी दुनिया में दर-दर भटकते रहे। हमारी माता जी के पूर्वज भी उसी समय काष्ठ की कश्तियों के सहारे महीनों तक अरब सागर में ज़िंदगी और मौत के बीच झूलते हुए भारत के दक्षिणी तटों पर पहुंचे थे।
प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध के बीच में तो यहूदियों के ऊपर दु:खों का पहाड़ ही टूट पड़ा। एडोल्फ हिटलर जैसे नर-पिशाचों के नेतृत्व में 60 लाख से अधिक यहूदियों को नस्लीय घृणा का शिकार होकर अपनी जानों से हाथ धोना पड़ा। यह दौर, वह दौर था जब यहूदियों पर किए जाने वाले ज़ुल्म अपनी चरम सीमा पर पहुंच गए। इस दौर में यहूदियों की स्थिति इतनी बदतर हो गई कि उनकी जान की क़ीमत एक कुत्ते से भी कम हो गई।
ऐसे समय में दुनिया भर के बिखरे पड़े हुए यहूदियों ने इस बात का निश्चय किया कि यदि वे अब भी एक नहीं हुए तो शायद उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। अतः विश्व के तत्कालीन अग्रणी यहूदी नेताओं ने अपने समुदाय के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अगस्त 1936 में स्विट्जरलैंड के जेनेवा नामक नगर में ‘विश्व यहूदी कांग्रेस‘ (WJC) नामक एक यहूदी संगठन की स्थापना की जो कालांतर में वर्तमान इज़रायल राष्ट्र के गठन की राह में प्रथम मील का पत्थर साबित हुआ।
इस विश्व यहूदी कांग्रेस ने बहुत ही जल्द इस बात को समझ लिया था कि ऑटोमन अंपायर के ख़ात्मे के बाद अब ब्रिटिश हुकूमत भी अरब क्षेत्र में अधिक दिन तक टिक नहीं पाएगी और उसके अधीन आने वाला विशाल अरब क्षेत्र, कई छोटे-छोटे देशों में विभक्त हो जाएगा। अतः विश्व यहूदी कांग्रेस ने अपने गठन के कुछ ही महीनों के अंदर बेहद तेज़ और समझदार यहूदी युवकों को संगठित करके आश्चर्यजनक रूप से एक निजी जासूसी एजेंसी बनाने की दिशा में कार्य करना शुरू कर दिया। इस निजी जासूसी एजेंसी की मदद से विश्व यहूदी कांग्रेस ने दुनिया भर में बिखरे पड़े यहूदियों को उनके ‘ईश्वर की पवित्र भूमि इज़रायल’ की ओर लौटने का आह्वान किया और उनको हर-संभव मदद मुहैया करवाई।
यह देख कर पिछले 2,000 वर्षों से अधिक समय से पूरी दुनिया में धक्के खा रही यहूदी क़ौम को अचानक से अपने देश के इज़रायल के पुनर्गठन की संभावनाएं ज़िंदा होते हुए नज़र आने लगीं और वे अपने पत्नियों एवं बच्चों को अपनी शरणगाहों में छोड़कर अकेले ही तत्कालीन फ़िलिस्तीन की ज़मीनों को ख़रीदने के लिए निकल पड़े। इस पुनीत कार्य में दुनिया भर के समृद्ध यहूदियों ने दिल खोलकर दान दिया और देखते ही देखते विश्व यहूदी कांग्रेस दुनिया का सबसे धनवान संगठन बन गया।
जब तक कि तत्कालीन फ़िलिस्तीन के अवैध घुसपैठिए, जो कि हज़ारों वर्षों से यहूदी ज़मीनों के मालिक बनकर बैठे हुए थे, कुछ समझ पाते, दुनिया भर के यहूदियों ने विश्व यहूदी कांग्रेस के द्वारा प्रदान किए गए धन से अल-क़ुद्स (जेरुसलम) नगर के आसपास की हज़ारों वर्ग किलोमीटर की ज़मीनें ख़रीद डालीं। इसके साथ ही विश्व यहूदी कांग्रेस के द्वारा गठित की गई निजी जासूसी एजेंसी ने भविष्य का अनुमान लगाते हुए आलिया यानी कि हिजरत कर के आए हुए यहूदियों को सैन्य प्रशिक्षण प्रदान करना शुरू कर दिया।
अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति एवं संकल्प के बल पर मात्र एक दशक के अंदर विश्व यहूदी कांग्रेस एवं उसके द्वारा गठित की गई निजी जासूसी एजेंसी ने बग़ैर किसी शासकीय अथवा बाहरी मदद के एक लाख से अधिक यहूदियों को प्रशिक्षित करके उन्हें एक सेना के रूप में ढाल दिया और चुपचाप बैठ कर उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। ईश्वर की कृपा से इस बार यहूदियों की यह प्रतीक्षा अधिक लंबी नहीं चली और वर्ष 1947 में ब्रिटेन द्वारा 2,000 से अधिक वर्षों से निर्वासित जीवन जी रहे यहूदियों के लिए एक पृथक राष्ट्र प्रदान किए जाने की सुखद घोषणा की गई। इस घोषणा के बाद पूरे अरब जगत में भूचाल आ गया और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई। ब्रिटेन ने जैसे-तैसे परिस्थितियों को नियंत्रित किया और द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर यहूदियों और स्थानीय मुस्लिमों को शांति के साथ रहने की सलाह प्रदान की।
आख़िरकार ब्रिटेन ने अपना वादा निभाया और 14 मई, 1948 को यहूदियों को अपनी प्राचीन विशाल भूमि में से एक छोटा सा टुकड़ा मिल गया। उसके बाद यहूदियों ने अपने पूर्वजों की ग़लतियों से सबक़ लेते हुए ‘सेकुलरिज़्म’ नामक कैंसर को अपनाने से पूरी तरह से तौबा कर ली और उस छोटे से भूभाग में ही अपनी शक्तियों का विस्तार करने लगे। वर्ष 1949 में विश्व यहूदी कांग्रेस द्वारा गठित की गई उक्त जासूसी एजेंसी को ‘मोसाद‘ नाम देकर एक सरकारी एजेंसी बना दिया गया और उसके द्वारा प्रशिक्षित किए गए यहूदी युवकों को इज़रायली सेना में भर्ती कर लिया गया।
हालांकि पहले से जले हुए बैठे मुस्लिम आतंकवादियों ने वर्ष 1948, 1967 एवं 1973 में घात लगाकर इज़रायल के ऊपर कई बार हमले किए लेकिन इज़रायल ने हर बार उनकी जमकर ख़ातिरदारी करते हुए उनकी तशरीफ़-शरीफ़ को गर्मी प्रदान की। तब से लेकर आज तक इज़रायल आतंकवादियों की कुटाई में बिल्कुल भी कोताही नहीं बरतता है और उनके द्वारा महीन से महीन हरकत के भी अंजाम दिए जाने पर उनको अधिक से अधिक दंड प्रदान करता है।
आज आम इज़रायली इस तथ्य को अच्छे से समझ चुका है कि यह ‘सेकुलरिज़्म’ नामक बीमारी अपने आप में बहुत ही घातक चीज़ है। यह वह आत्मघाती अमल है जो किसी भी संपन्न एवं हंसते-खेलते समुदाय को एक लंबे काल के लिए निर्वासन के अंधेरे में धकेलने की शक्ति रखता है। दुर्भाग्य से आज वैश्विक हिंदू समुदाय का एक बड़ा भाग भी इसी सेकुलरिज़्म के चंगुल में फंसा हुआ है। अपने अस्तित्व के संरक्षण के लिए उसे जल्द से जल्द इसके फंदे से बाहर निकलने की नितांत आवश्यकता है। यदि हिंदू समुदाय इस सेकुलरिज़्म नामक भस्मासुरी विचारधारा का तत्काल परित्याग नहीं करता है तो यह निश्चित है कि वह अनंत काल के लिए निर्वासन में जाकर अपने अस्तित्व को समाप्त करने की राह ही प्रशस्त करेगा।
शलोॐ…!
[बाबा इज़रायली की आगामी हिब्रू पुस्तक ‘חורבות החילוניות‘ अर्थात ‘Ruins of Secularism‘ (धर्मनिरपेक्षता के खंडहर) से अनुवादित एक लेखांश…]