19 जनवरी, वर्ष 1990, इस तिथि का अंकन वर्तमान भारत की तथाकथित सेकुलरी गंगा-जमुनी तहज़ीब की असलियत को नंगा करने वाले तथ्यों की गठरी से निकला हुआ वह अकाट्य प्रमाण है, जब दुर्दांत इस्लामी आतंकवादियों के द्वारा सिर्फ़ एक सर्द रात के अंदर ही असंख्य बलात्कारों एवं हत्याओं को अंजाम देकर लाखों हिंदुओं को ऋषि कश्यप की तपोभूमि ‘कश्मीर’ से बाहर निकाल फेंका गया! इस दौरान न जाने कितनी हिंदू मां-बहनों की आबरुएं लूटी गईं, न जाने कितने छोटे बच्चों को पटक-पटककर मार डाला गया, न जाने कितने हिंदू पुरुषों की निर्ममतापूर्वक हत्याएं की गईं- केवल इसलिए क्योंकि कश्मीर के हिंदू समुदाय ने तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की अफ़ीम पीकर ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ के सिद्धांत पर चलना छोड़ दिया था जिसके कारण कश्मीर में समुदाय-विशेष की आबादी एक निश्चित जनसंख्या के स्तर को पार कर गई और अंत में हिंदुओं को अपने जान-माल से हाथ धोकर और अपमानित होकर अपनी अजागरूकता की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।
इतना सब कुछ होने के बाद भी भारत की पूर्ववर्ती तथाकथित सेकुलर सरकारों ने कभी-भी कश्मीरी हिंदुओं के ऊपर हुए इन अत्याचारों का संज्ञान लेने में अपनी दिलचस्पी नहीं दिखाई। दही-हांडी की रस्सी की लंबाई तय करने वाली, स्त्रियों-पुरुषों के अनैतिक संबंधों को नैतिक संबंधों में बदलने के दिशानिर्देश देने वाली, लव-जिहाद का शिकार हुई 15 साल की नाबालिग हिंदू लड़की के निकाह को शरीयत के अनुसार वैध-क़रार देकर अपनी संवैधानिक स्थापना के आधारभूत-ढांचे को खोखलत्व प्रदान करने वाली एवं जल्लीकट्टू जैसे प्राचीन हिंदू-पर्वों के ऊपर प्रतिबंध लगाकर पशु-अधिकारों तक को अपना संरक्षण प्रदान करने वाली- भारत की तथाकथित न्यायपालिका (???) को भी कश्मीरी हिंदुओं के अधिकार, सदैव पशुओं के अधिकारों से भी बदतर नज़र आए। शायद यही वजह रही कि 28 वर्षों तक चली लंबी न्यायिक प्रक्रिया के बाद भी न्याय की देवी के सामने अपना मुंह चिढ़ाती हुई भारत की यह तथाकथित सर्वोच्च न्यायिक संस्था (???), कश्मीरी हिंदुओं को न्याय दिलवाने के लिए डाली गई याचिका को कूड़ेदान में फेंकने के बाद याचिकाकर्ता को फटकार लगाते हुए अन्याय, असत्य एवं अधर्म के पक्ष में खड़ी हुई पाई गई।
हालांकि जब-जब कश्मीर में हुए हिंदू-नरसंहारों की बात आती है तब-तब वर्ष 1990 के दशक में हुए हिंदू-नरसंहार ही अधिक प्रासंगिक रहते हैं परंतु मतिभ्रम के शिकार अधिकतर हिंदुओं को यह भी याद नहीं है कि वर्ष 1990 के बाद भी कश्मीर की भूमि पर हिंदुओं के कई बड़े नरसंहार हुए हैं। वर्ष 1998 में हुए चपनारी नरसंहार, वर्ष 2002 में हुए कालूचक एवं कासिम नगर नरसंहार समेत वर्ष 2006 में हुए डोडा नरसंहार के द्वारा इस्लामी आतंकवादियों ने स्पष्ट रूप से यह संदेश प्रदान करने का प्रयास किया कि वर्ष 1990 के दशक में कश्मीर में उनके द्वारा अंजाम दिया गया सबसे बड़ा कश्मीरी हिंदू-नरसंहार, कोई भूलवश किया गया कृत्य नहीं था बल्कि वह ऐसा कृत्य था जिसे जानबूझकर इसलिए अंजाम दिया गया था ताकि कश्मीर को काफ़िर-मुक्त इस्लामी-भूमि (दारुल-इस्लाम) में तब्दील किया जा सके। विदित हो कि विश्व के लगभग 6 दर्ज़न वर्तमान इस्लामी मुल्क, इसी कश्मीरी-मॉडल के भूतकालीन प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं।
वर्ष 1990 के लगभग 13 वर्ष बाद वर्ष 2003 में कश्मीर के पुलवामा के निकट नंदीमर्ग नामक गांव में एक बार फिर से इस्लामी आतंकवादियों ने भारत की धरती पर भारत-पुत्रों के रक्त से ख़ूनी-होली खेली थी। वर्ष 1991 में घाटी को छोड़कर जम्मू में पलायन किए हुए नंदीमर्ग गांव के 30 कश्मीरी हिंदू, तत्कालीन कश्मीर सरकार के इस आश्वासन पर नंदीमर्ग वापस लौटे थे कि कश्मीर सरकार उन्हें सुरक्षित और सम्मानपूर्ण जीवन जीने का वातावरण उपलब्ध कराएगी पर उन अभागे खरगोश रूपी कश्मीरी हिंदुओं को शायद स्वप्न में भी इस बात का आभास नहीं था कि कश्मीर की तत्कालीन सरकार के द्वारा उन्हें वापस घाटी में बुलाना, दरअसल कश्मीरी इस्लामी आतंकवादी भेड़ियों का ही एक जाल था। अतः वे कश्मीर सरकार के इस आश्वासन पर जम्मू के शरणार्थी शिविरों को छोड़कर अपने कश्मीर स्थित नंदीमर्ग गांव वापस चले आए।
नंदीमर्ग लौटने के केवल 3 दिन के उपरांत ही कश्मीर के इस्लामी आतंकवादियों ने रात के दस बजे से बारह बजे के मध्य उन कश्मीरी हिंदुओं के घरों को चारों तरफ़ से घेर लिया। उसके बाद उनके घरों के दरवाज़ों को तोड़कर सबसे पहले तो हिंदू पुरुषों और उनके छोटे बच्चों को कमरों में बंद करके बाहर से कुंडी लगा दी गई। उसके बाद कश्मीरी इस्लामी आतंकवादियों ने घरों के आंगनों में काफ़िर-महिलाओं के साथ दुर्दांततम तरीक़े से सामूहिक बलात्कार किया। बलात्कार के दौरान उन हिंदू महिलाओं की चीखों को सारे गांव के लोगों ने सुना परंतु किसी भी शांति के दूत ने अपने हिंदू भाई-बहनों (???) को बचाने के लिए भारत की ऐतिहासिक सेकुलरी गंगा-जमुनी तहज़ीब (???) की चौखट पर अपने ईमान की क़ुरबानी नहीं दी।
ख़ैर, जिस चीज़ का अंदेश था, वही हुआ। हिंदू महिलाओं का जी-भरकर बलात्कार करने बाद इस्लामी आतंकवादियों ने रात को क़रीब ढाई बजे सभी हिंदुओं को एक लाइन में खड़ा करके गोली से उड़ा दिया गया था। इसके बाद अगले दिन सुबह उनके घरों से कुल चौबीस शव प्राप्त हुए थे जिसमें ग्यारह महिलाएं, दो दुधमुंहे बच्चे और ग्यारह वयस्क पुरुष थे। सभी के चेहरों पर गोलियां मारी गई थीं। चूंकि दुधमुंहे बच्चे अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते थे इसलिए उन्हें ज़मीन पर लिटाकर नज़ दीक से गोलियां मारी गई थीं। दो युवकों और चार युवतियों का कुछ पता नहीं चल पाया। संभवतः उन्हें यौन-दास / दासी बनाकर कश्मीर के किसी ईमानवाले घर के तहख़ाने में क़ैद कर लिया गया होगा!
उपरोक्त घटनाक्रम के बाद कश्मीर की हवा में दबी ज़ुबान में कुछ साज़िशों से जुड़े समाचार भी तैरते पाए गए थे। जानकारों का कहना था कि नज़दीकी जैनापोरा पुलिस थाने में, जहां पर कुल नौ पुलिसकर्मियों की ड्यूटी हुआ करती थी, 23 मार्च, सन 2003 की सुबह वहां बस चार पुलिसवाले ही मौजूद पाए गए थे। पांच पुलिसकर्मी, बग़ैर छुट्टी लिए अथवा पूर्व सूचना के ग़ायब थे। बाद में कश्मीर की तत्कालीन सरकार के द्वारा इस बात को अफ़वाह बताकर हवा में उड़ा दिया गया था और इस बात की कभी कोई जांच वगैरह करवाना भी आवश्यक नहीं समझा गया।
हालांकि उस वक्त केंद्र में भाजपा की अटल सरकार थी परंतु उसके होने से भी हिंदुओं को न्याय के रूप में कुछ विशेष हासिल नहीं हुआ। शांति को स्थापित करने के लिए हुर्रियत और आतंकियों से पूर्ववत नाकाम वार्ता चलती रही। आतंकियों को एक के बाद एक करके बच निकलने के कई सुरक्षित रास्ते मिलते रहे। कश्मीरी हिंदू, भारतीय सेना एवं अर्धसैनिक बलों के सैनिकों की लाशें गिरती रहीं और भारत सहित दुनिया-भर के शुतुरमुर्ग हिंदू, भारत की उपरोक्त वर्णित तथाकथित सेकुलरी गंगा-जमुनी तहज़ीब की इकतरफ़ा ढपली बजाते हुए स्वयं के हलाल होने का भस्मासुरी-उत्सव मनाते रहे।
शलोॐ…!