हिंदुओं को आत्मरक्षार्थ इज़रायली विचारधारा को क्यों धारण करना चाहिए…?

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‘यहूदी’ अथवा ‘इज़रायली’ एक नस्ल ही नहीं बल्कि एक ‘मानसिकता और विचारधारा’ भी है जो किसी भी स्तर पर जाकर अपने शत्रुओं को नष्ट करने के लिए प्रतिबद्ध रहती है। अतः विश्व का हर वह समुदाय जो इस्लामी अथवा अन्य प्रकार के आतंकवाद से पीड़ित है, वह समय-समय पर चर्चा के दौरान अपने अस्तित्व के रक्षण के लिए केवल और केवल इसी ‘इज़रायली विचारधारा‘ को अपनाने की बात करता रहता है।

हालांकि आतंकवाद से पीड़ित विश्व के विभिन्न समुदाय इस इज़रायली विचारधारा को अपनाने की बात तो करते हैं, लेकिन किस तरह से इस विचारधारा को अपनाकर मूर्त रूप प्रदान किया जाए, इसकी रूपरेखा वे तय नहीं कर पाते हैं। दरअसल जहां एक बार व्यक्ति ने स्वयं से सोचना शुरु कर दिया, फिर उसके बाद उसके मस्तिष्क में ‘सेकुलरिज़्म’ तो भरा जा सकता है, ‘इज़रायली विचारधारा’ को नहीं। अतः एक मानव मस्तिष्क में इस इज़रायली विचारधारा को बोने के लिए मनुष्य की आयु 5 से 8 वर्ष के मध्य ही होनी चाहिए क्योंकि यही वह सर्वोत्तम भौतिक अवस्था है जिसमें कि किसी भी प्रकार की विशेष वैचारिक फ़सल पैदा की जा सकती है।

इसके अलावा इस बात पर विचार भी किया जाना चाहिए कि इस अवस्था के बालकों को इज़रायली विचारधारा में ढालने वाले आचार्यगण अथवा शैक्षणिक संस्थाएं क्या वाक़ई में उपरोक्त वर्णित अपेक्षित परिणामों को ध्यान में रखते हुए अपनी नई पीढ़ी के मस्तिष्कों का निर्माण कर पाने में सक्षम भी हैं? यदि नहीं, तो हिंदुओं को सबसे पहले अपनी नस्लों पर कार्य करने के लिए ऐसे आचार्यगणों एवं शैक्षणिक संस्थाओं के निर्माण के लिए उद्यत होना चाहिए।

यहां पर हम इस बात को स्पष्ट करना उचित समझते हैं कि हिंदुओं को ‘इज़रायली विचारधारा’ में रंगने का अर्थ उनका मत-परिवर्तन करना नहीं है बल्कि उन्हें अपनी आस्थाओं, मान्यताओं, संस्कृतियों एवं अपने अस्तित्व के रक्षण के लिए अपनी ‘सनातन विचारधारा’ को और अधिक सुदृढ़-परिष्कृत करना एवं अपने शत्रुओं पर कहर बनकर टूटने वाली ‘मोसादी मानसिकता’ में रंगना भर है। हमारा ऐसा मानना है कि यदि भारत का आम हिंदू इस ‘इज़रायली विचारधारा’ को अपनाता है तो वह म्यांमार और श्रीलंका के महान नागरिकों की तरह ही अपने मत / पंथ / संप्रदाय / धर्म एवं राष्ट्र के लिए पूर्व से और अधिक समर्पित प्रहरी बनकर निकलेगा।

हमें कहते हुए भी बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि इस समय हिंदुओं पर अपने अस्तित्व के संरक्षण के लिए ‘इज़रायली’ ही नहीं बल्कि ‘इज़रायली++ विचारधारा‘ को आत्मसात करना लाज़िम हो गया है। यदि हिंदुओं के ठेकेदारों और नीति-निर्माताओं ने हमारी इस बात पर जल्दी ही अमल करना शुरू नहीं किया तो यह हिंदुस्तान कब मुग़लिस्तान बन जाएगा, हमें पता ही नहीं चलेगा। अंत में निम्नलिखित अश’आर के साथ हम अपनी बात समाप्त करना चाहेंगे कि-

“कुछ तुम्हारा भी फ़र्ज़ है इस भाईचारे को निभाने का,
ये ‘सेकुलरिज़्म’ केवल हिंदुओं के बाप का थोड़े ही है?”

शलोॐ…!