फ़िरोज़ गांधी: एक अभागे दामाद, अभागे शौहर और अभागे बाप की दुःखद दास्तां…

babaisaeli.com20210908-015

गांधी परिवार का जब भी कहीं ज़िक्र होता है उसमें फ़िरोज़ ख़ान कहीं अकेले छूट जाते हैं। इंदिरा उर्फ़ मैमूना बेगम के शौहर फिरोज ख़ान के यौम-ए-पैदाइश (जन्मदिन) अथवा यौम-ए-विसाल (मरणदिन) पर न तो ज़ोर-शोर से कोई कार्यक्रम मनाया जाता है और न ही कांग्रेस पार्टी उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए इच्छुक दिखाई पड़ती है। ऐसी स्थिति में भारत के दक्षिणपंथी धड़े की यह नैतिक ज़िम्मेदारी बन जाती है कि वह नेहरू-गांधी परिवार के इस परित्यक्त सदस्य फ़िरोज़ ख़ान को न केवल याद करे बल्कि उनके विषय में अपनी भावी पीढ़ियों को जानकारी प्रदान करे।

फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान का परिवार तत्कालीन इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में रहा करता था। उनका जन्म 12 सितम्बर, 1912 को एक पारसी / मुस्लिम (अलग-अलग मतानुसार) परिवार में हुआ था। ऐसे में यदि भारतीय परंपराओं की मानें तो फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान की बेगम मैमूना उर्फ़ इंदिरा गांधी, बेटे राजीव-संजीव (संजय) एवं पोते राहुल (रौल विंची)- ये सभी लोग भी पारसी / मुस्लिम ही हुए लेकिन देश का सबसे रसूख़दार माने जाना परिवार, भारतीय परंपरा एवं नियमों को भला कहां मानता है? इसके उलट, भारतीय परंपराओं एवं नियमों को ही उसके अनुसार ढलकर बदलना पड़ता है। अतः फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान एवं मैमूना बेगम की पारसी / मुस्लिम संतानें एक लंबे समय तक स्वयं को हिंदू (ब्राह्मण) बताकर भारतीय जनमानस को मूर्ख बनाती रहीं।

चित्र: फ़िरोज़ गांधी: भारत का सबसे अभागा राजनीतिज्ञ

इंदिरा और फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान की जान-पहचान वर्ष 1935 से 1940 के बीच इंग्लैंड में हुई थी जहां पर दोनों पढ़ाई के लिए पहुंचे थे। वहां पर इन दोनों की जान-पहचान इस क़दर बुलंदियों पर पहुंची कि अगले पांच वर्षों में इन दोनों की दोस्ती के चर्चे यूरोप के गली-मोहल्लों में बिकने वाली बेहद सस्ती पत्र-पत्रिकाओं में भी होने लगे। इसके बाद इन दोनों की पढ़ाई का कार्य इतना पीछे छूट गया कि ये दोनों बग़ैर डिग्री हासिल किये ही भारत लौट आए पेरिस में लिए गए अपने निर्णय के मुताबिक़, मार्च 1942 में प्रयागराज (तत्कालीन इलाहाबाद) में दोनों ने निकाह कर लिया।

ऐसा कहा जाता है कि इस निकाह से कांग्रेसियों के प्यारे चचा जवाहरलाल नेहरू ख़ुश नहीं थे लेकिन मैमूना की ज़िद के आगे उनकी एक न चली। इसी दौरान भारत के फ़र्ज़ी राष्ट्रपिता कहे जाने वाले मोहनदास करमचंद गांधी ने अल-तक़िया नामक इस्लामी सिद्धांत का प्रयोग करते हुए, दिखावे के लिए फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान को सांकेतिक तौर पर गोद लेकर उनको अपना उपनाम दे दिया मगर अंदरूनी तौर पर इंदिरा का मतांतरण करवाकर उन्हें इंदिरा प्रियदर्शिनी नेहरू से मैमूना बेगम बना दिया। उसके बाद फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान के साथ उनका निकाह मुक़म्मल करवाया गया। तब से ही ये परिवार फ़र्ज़ी जनेऊधारी ब्राह्मण परिवार, ‘गांधी-परिवार’ के नाम से जाना जाने लगा। जबकि वास्तविक रूप से यदि देखा जाये तो फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान के गोत्र से यह परिवार पारसी अथवा मुस्लिम परिवार है। यदि मोहनदास करमचंद गांधी के द्वारा फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान को गोद लिए जाने के दावे पर विश्वास कर भी लिया जाए तो भी यह परिवार ब्राह्मण नहीं बल्कि गुजराती बनिया परिवार ठहरता है। अतः इन दोनों ही परिस्थितियों में इस फ़र्ज़ी गांधी परिवार द्वारा अपने जनेऊधारी ब्राह्मण होने का दावा करना, सबसे लंबे समय तक भारतीय दंड संहिता की धारा-420 के उल्लंघन का विश्व रिकॉर्ड क़ायम करता है।

ख़ैर, फ़िरोज़-मैमूना के निकाहोपरांत, दो-दो वर्षों के सूक्ष्म अंतराल के बाद क्रमशः वर्ष 1944 में राजीव और वर्ष 1946 में संजीव (संजय) पैदा हुए। अब चूंकि अब मैमूना बेगम राजनीति में भी सक्रिय होने लगी थीं और अपना ज़्यादातर वक़्त अपने अब्बू जवाहरलाल नेहरू के साथ बिताने लगी थीं, तो ऐसे में फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान के साथ उनका रिश्ता कहीं पीछे छूटने लगा। अतः वर्ष 1949 में मैमूना बेगम, अपने दोनों बच्चों (राजीव और संजीव) को अपने साथ लेकर अपने पिता जवाहरलाल नेहरू के पास दिल्ली चली गईं। फ़िरोज़ द्वारा मैमूना से संपर्क करने के प्रयास के कारण नेहरू द्वारा फ़िरोज़ को न केवल कई बार धमकाया गया बल्कि प्रताड़ित भी किया गया। इस घटना के बाद फ़िरोज़ के न सिर्फ़ मैमूना से बल्कि जवाहरलाल नेहरू से भी गहरे मतभेद उत्पन्न हो गए। फिर फ़िरोज़ ने नेहरू सरकार के ख़िलाफ़ एक बड़ा जन-आन्दोलन छेड़ दिया और आज़ाद भारत के प्रथम घोटाले ‘जीप घोटाले’ समेत नेहरू सरकार के कई बड़े घोटालों को उजागर किया। उन्होंने नेहरू के क़रीबी और तत्कालीन वित्त मंत्री टी०टी० कृष्णामाचारी के ख़िलाफ़ भी आवाज़ उठाई और एलआईसी घोटाले का भंडाफोड़ किया। ऐसे में टी०टी० कृष्णामाचारी को अपना इस्तीफ़ा देना पड़ गया। ज्ञात हो कि टी०टी० कृष्णामाचारी, नेहरू के पसंदीदा नेताओं में से एक थे।

चित्र: फ़िरोज़ गांधी: जिसे अपनों ने ही भुला दिया

वर्ष 1958 में फ़िरोज़ को दिल का दौरा आया। उस वक्त मैमूना बेगम भूटान में थीं। उनके भारत लौट आने के बाद अप्रत्याशित रूप से दोनों के बीच समझौता हो गया और दोनों एक महीने की छुट्टी पर कश्मीर घूमने के लिए चले गए। कुछ समय बाद फ़िर से फ़िरोज़ को दो बार बार दिल का दौरा आया। ऐसा कहा जाता है कि इसी वजह से 8 सितंबर, 1960 को दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में उनकी मौत हो गई परंतु तत्कालीन समय के नेहरू परिवार के क़रीबी लोगों के मध्य काफ़ी समय तक ऐसी चर्चा रही थी कि फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान की तेज़ी से बढ़ती लोकप्रियता से जवाहरलाल नेहरू और मैमूना बेगम अचानक से घबरा गये थे और उन्हें अपनी सरकार के जाने का ख़तरा महसूस होने लगा था। अतः नेहरू ने एक षड्यंत्र के तहत अप्रत्याशित रूप से फ़िरोज़ एवं मैमूना के मध्य समझौता करवाकर उन्हें कश्मीर भेज दिया, जहां पर खाने में एक धीमे विष को देकर उन्हें मारने की साज़िश पर अमल किया गया।

कांग्रेस के काले कारनामों के इतिहास पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो इस आशंका पर विश्वास करने के कई कारण मौजूद हैं। इस बात में बिलकुल भी संदेह नहीं है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आज़ाद, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, लाल बहादुर शास्त्री एवं जय प्रकाश नारायण जैसे कई प्रतिभावान एवं नेहरू-गांधी परिवार के लिये संभावित ख़तरे के रूप में उभरकर आए जन-समर्थित लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के रहस्यों के नेपथ्य में स्पष्ट रूप से कांग्रेसी साज़िशें ही सम्मिलित रही थीं। फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान की मौत के संबंध में एक बार फिर से वही पुराना कांग्रेसी पैटर्न देखने को मिला। हालांकि पूर्व घटनाओं की तरह ही फ़िरोज़ की मौत का राज़ भी धीरे-धीरे वक़्त की गहराइयों में फ़ना होकर रह गया लेकिन जिन फ़िरोज़ के घर में उनके ससुर, बेगम और पुत्र, तीन-तीन लोग प्रधानमंत्री रहे हों और उनकी पारिवारिक पार्टी ने देश के ऊपर 60 वर्षों से अधिक समय तक एकछत्र तानाशाही-हुक़ूमत की हो, उन अभागे फ़िरोज़ की किस्मत तो देखिए कि स्टेनले रोड, प्रयागराज में स्थित उनकी क़ब्र, अपने परिजनों की आमद तक के लिए तरसती रहती है। बरस दर बरस गुज़रते चले जाते हैं लेकिन कोई कांग्रेसी उनकी क़ब्र पर फ़ातिहा पढ़ने के लिए भी नहीं पहुंचता है।

चित्र: स्टेनले रोड, प्रयागराज में स्थित फ़िरोज़ गांधी की क़ब्र

ख़ैर, फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान, हम इस बात को कभी भी नहीं भूल सकते हैं कि जिस भारतद्रोही परिवार एवं पार्टी के पालतू जानवर से लेकर कद्दावर से कद्दावर नेता भी अपनी पार्टी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की ज़ुर्रत नहीं कर पाते हैं, उस परिवार एवं पार्टी के सदस्य रहकर आपने सबसे पहले उस परिवार एवं पार्टी द्वारा किए गए भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी। उस वक़्त भले ही तात्कालिक रूप से आप उसमें ज़्यादा क़ामयाब न हो पाए हों लेकिन आप ही वह पहले शख़्स थे जिसने नेहरू-गांधी परिवार के ताबूत में पहली कील ठोंकने का साहसिक प्रयास किया था। अतः आज भले ही आप के परिवारीजन आपके द्वारा दी गई क़ुर्बानियों को भूल जाएं मगर बाबा इज़रायली की स्मृतियों से आप कभी विस्मृत नहीं हो सकते हैं।

वे न पढ़ें मगर हम क़ुरआन के दूसरे सूरह, सूरह अल-बक़रह की आयत नंबर 156 को पढ़कर, सभी कांग्रेसियों के पितामह जनाब फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान के 62वें यौम-ए-विसाल पर उनकी रूह की मग़फ़िरत (उद्धार) के लिये यही दुआ करेंगे कि-

“إِنَّا لِلَّٰهِ وَإِنَّ إِلَيْهِ رَاجِعُونَ‎…”

“इन्न लिल्लाहि व इन्न इलाही राजीऊन…”

अर्थात, निःसंदेह, हम (फ़िरोज़ ख़ान) अल्लाह से हैं और हमें (फ़िरोज़ को) अल्लाह के पास जाना है…

शलोॐ…!

(जनाब फ़िरोज़ जहांगीर ख़ान के #यौम_ए_विसाल 08 सितंबर पर बाबा इज़रायली का विशेष आलेख…)