भारत: गांधी-नेहरू की छाया में…

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वर्ष 1926 में स्वामी श्रद्धानंद जी की हत्या कर दी गई। हत्या करने वाला एक मुसलमान था और उनकी हत्या का एकमात्र कारण स्वामी जी का मतांतरित मुसलमानों की शुद्धि का कार्य था। यह बात स्पष्ट है कि आर्य-समाजी कभी भी किसी अहिंदू को बल, छल अथवा प्रलोभन से हिंदू बनाते हुए नहीं देखे गए। इस पर भी स्वामी जी की हत्या की गई और कांग्रेसी स्वामी जी के काम की निंदा करते रहे। उस समय मोहनदास करमचंद गांधी कांग्रेस के अधिवेशन में गुवाहाटी गए हुए थे। जब उनको स्वामी श्रद्धानंद जी की हत्या का समाचार मिला तो अनायास ही उनके मुख से निकल गया कि ऐसा तो होना ही था!

गांधी के मुंह से इन शब्दों के निकलने का अर्थ उनके हिसाब से यही था कि मानो स्वामी श्रद्धानंद जी कोई भारी पाप कर रहे थे और उन्हें उस पाप का ऐसा फल मिलना ही था। इस घटना के विषय में मोतीलाल नेहरू ने अपने पुत्र जवाहर लाल नेहरू को, जो उस समय यूरोप में थे, इस प्रकार लिखा था-

“The assassination of (Swami) Shradhanand has increased communal bitterness and open threats of reprisals are coming from various quarters. The only quarters from which any real danger is apprehended are the Bengal revolutionaries who have unfortunately been tainted with communalism to a very considerable extent.”

(स्वामी श्रद्धानंद की हत्या ने सांप्रदायिक कड़वाहट को बढ़ा दिया है। बदला लेने की खुली धमकियां कुछ ओर से सुनाई दे रही हैं। जिस ओर से बदला लेने की आशा है, वे बंगाल के क्रांतिकारी हैं। दुर्भाग्य से वे बहुत अंशों में सांप्रदायिकता से रंगे हुए हैं।)

वे सब एक डरे हुए मन का भूत ही हैं। प्रथम तो स्वामी श्रद्धानंद की हत्या अपनी प्रकार की पहली हत्या नहीं थी। आर्य-समाज ने मुसलमानों की मतांधता के हाथों, यह प्रथम आहुति नहीं दी थी। इस शुद्धि-कार्य के लिए मुसलमानों ने पहले भी कई आर्य-समाजियों की हत्याएं की थीं और दुर्भाग्यवश हिंदुओं की ओर से किसी ने भी उन हत्याओं का बदला लेने का विचार नहीं किया था।

इसके साथ ही बंगाल के क्रांतिकारियों को बीच में लाने में तो कोई कारण ही प्रतीत नहीं होता! बंगाल के क्रांतिकारियों को सांप्रदायिकता से रंगा हुआ मानना, यह मोती लाल और जवाहर लाल के (कुत्सित) दिमाग की ही उपज थी। इतिहास इस बात का साक्षी है कि बंगाल के क्रांतिकारियों ने कभी भी किसी मुसलमान की हत्या, उसके मुसलमान होने के कारण नहीं की। यह मोती लाल तथा जवाहर लाल का सरासर झूठ था जो वे बंगाल के क्रांतिकारियों को संप्रदायिक बता रहे थे। यह ठीक है कि बंगाल के क्रांतिकारी माता दुर्गा और माता भवानी का नाम लेते थे, परन्तु उन्होंने कभी-भी अपनी क्रांतिकारी संस्थाओं को हिंदू-मुसलमानों के झगड़ों में प्रयोग नहीं किया।

यह अपने-आप में विस्मयकारी है कि कांग्रेस के मूर्ख नेतागण एक मुसलमान अपराधी को निंदनीय कहने की हिम्मत नहीं जुटा सके और अपराधियों के विपरीत प्रतिक्रिया का भय करके हिंदुओं को सांप्रदायिक सिद्ध करने की कुचेष्टा करने लग गए। उन हिंदुओं को- जिनकी ओर से इस तरह की किसी प्रतिक्रिया की संभावना हो ही नहीं सकती थी।

विशेष: उपरोक्त बौद्धिक अंश महान हिंदूवादी लेखक ‘गुरुदत्त’ के कालजयी उपन्यास ‘भारत: गांधी नेहरू की छाया में’ से उद्धृत है। यह पुस्तक गांधी और नेहरू द्वारा भारत और हिंदुओं के प्रति किये गए असंख्य विश्वासघातों के विषय में सिलसिलेवार तरीक़े से विस्तारपूर्वक जानकारी प्रदान करती है। इस पुस्तक को आप टीम बाबा इज़रायली द्वारा विकसित किए जा रहे ‘ई-पुस्तकालय‘ में जाकर पढ़ सकते हैं। आने वाले समय में आपको हमारे इस ई-पुस्तकालय में हिंदू-चेतना से जुड़ा हुआ दुर्लभ हिंदू-साहित्य प्राप्त होगा।

शलोॐ…!