‘हलाला प्रथा’, इस्लामी संस्कृति का वह काला अध्याय है जिस पर बात करते समय ग़ैर-मुस्लिम तो छोड़िए, स्वयं मुसलमान भी अक्सर शर्मसार हो जाया करते हैं। यह वह प्रथा है, जिसमें तीन बार तलाक़ पाई हुई कोई तलाक़शुदा औरत अपने पहले शौहर के पास दोबारा तभी जा सकती है, जब उसका किसी दूसरे मर्द से निकाह हो और वह मर्द उस औरत के साथ हमबिस्तर होने के बाद उसे तलाक़ दे दे।
मुस्लिम उलेमा की मानें तो हलाला का यह इस्लामी सिद्धांत शरीयत का एक कभी न बदलने वाला सिद्धांत है जिसे स्वयं अल्लाह ने अपनी औरतों को तीन तलाक़ देने वाले मर्दों को सज़ा देने के लिए बनाया है। इसके पीछे का इस्लामी तर्क यह है कि जब किसी मर्द की औरत किसी दूसरे मर्द के पास जाती है तो उसको वह मानसिक सज़ा मिलती है जिसके बारे में बयान नहीं किया जा सकता। हालांकि हलाला के इस सिद्धांत के नेपथ्य में केवल मुसलमान मर्दों की मानसिक सज़ा के बारे में तो विस्तार से वर्णन किया गया है लेकिन वह औरत जिसे हलाला की इस शर्मनाक प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है, उसकी मानसिक एवं शारीरिक सज़ा के बारे में अल्लाह और उसका क़ानून कुछ भी नहीं बोलता! सारे मुस्लिम उलेमा इस बात के ऊपर चुप्पी साध जाते हैं कि शौहर के द्वारा की गई ग़लती के कारण एक बेगुनाह औरत को हलाला रूपी मज़हबी वेश्यावृत्ति के दलदल में क्यों धकेल दिया जाता है?
‘हलाला’ नामक इस उपन्यास में वर्णित कहानी की कहानी हरियाणा के मेवात ज़िले के मुस्लिम परिवेश से संबंधित है जहां रहने वाले शौहर नियाज़ द्वारा बिना किसी जायज़ वजह के नज़राना को तीन तलाक़ दे दिया जाता है। इस घटना के बाद नज़राना को उसके ससुराल वाले दोबारा से अपनी बहू बनाकर घर लाना चाहते हैं लेकिन इसके लिए इस्लामी शरिया क़ानून उनके आड़े आ जाता है। तीन तलाक़ के बाद किसी औरत के पहले मर्द के पास पुनः लौटने वाली ‘हलाला की शर्त’ पूरी करने के लिए नज़राना के ससुराल वाले, अपने पड़ोस में रहने वाले एक डमरु नामक व्यक्ति से उसका निकाह करवा देते हैं।
मोहल्ले में कलसंडा कहकर बुलाया जाने वाला डमरू, अपने चार भाइयों में सबसे छोटा है। काले रंग का होने के चलते उसे मोहल्ले में कलसंडा कहकर उसका मज़ाक़ उड़ाया जाता है। मोहल्ले में तो छोड़िए, घर में उसको ज्यादा भाव नहीं दिया जाता है। उसकी तीन भाभियों में दो तो यह चाहती हैं कि उसकी शादी ही न हो ताकि उनकी पुश्तैनी ज़मीन-ज़ायदाद के चार हिस्से होने की जगह तीन ही हिस्से रहें।
डमरू और नज़राना का निकाह हो जाने के पश्चात पहली रात में वे दोनों हमबिस्तर नहीं हुए। अतः हलाला की इस ‘हमबिस्तरी की शर्त’ के पूरी न होने के चलते उनका तलाक़ नहीं हो पाया। इसलिए इस शर्त को पूरा करने के लिए उन्हें एक और मौक़ा दिया गया। अपने बच्चों के पास पहुंचने के मोहवश नज़राना किसी तरह हलाला की इस प्रक्रिया के लिए तैयार हो गई परंतु भोले-भाले डमरू ने यह कहते हुए उसके साथ हलाला प्रक्रिया को संपन्न करने से मना कर दिया कि वह पंचों के सामने हलाला की शर्त पूरी होने की बात स्वीकार कर लेगा परंतु मज़हब की आड़ में जिस्मानी सुख लेने के लिए उसके साथ वेश्यावृति नहीं करेगा।
जब हलाला की शर्त पूरी होने की बात पूरे गांव में फैली तो नज़राना की सास का उसे घर वापस लाने का इरादा बदल गया लेकिन उसका शौहर नियाज़ उसे फिर भी घर वापस लाने के लिए प्रयासरत रहा। पंचों के सामने डमरू ने हलाला की शर्त पूरी करने की बात स्वीकार कर ली और फिर वह जैसे ही नज़राना को तलाक़ देने के लिए उठा वैसे ही नज़राना ने सबको शर्त पूरी न होने की सच बात बता दी। इसके साथ ही उसने पंचायत में बैठे हुए कठमुल्लों से कई तीखे सवाल पूछते हुए उनकी ज़्यादतियों को न सहने की घोषणा की और अपनी आगे की ज़िंदगी डमरू के साथ गुज़ारने का ऐलान कर दिया।
विशेष: उपरोक्त उपन्यास प्रसिद्ध आधुनिक उपन्यासकार एवं कहानीकार ‘भगवान दास मोरवाल’ की ताज़ा-तरीन किताब ‘हलाला’ से उद्धृत है। यह पुस्तक मज़हब-ए-इस्लाम की ‘हलाला’ जैसी निकृष्ट प्रथा के परिणामस्वरूप एक मुस्लिम युवती के शोषण को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक को आप टीम बाबा इज़रायली द्वारा विकसित किए जा रहे ‘ई-पुस्तकालय‘ में जाकर पढ़ सकते हैं। आने वाले समय में आपको हमारे इस ई-पुस्तकालय में हिंदू-चेतना से जुड़ा हुआ दुर्लभ हिंदू-साहित्य प्राप्त होगा।
शलोॐ…!