आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व जब इज़रायल पर रोमनों का हमला हुआ और उन्होंने वहां पर रहने वाले यहूदियों का क़त्लेआम करना शुरू किया तो उसके बाद वहां का यहूदी समुदाय विश्व के अन्य क्षेत्रों में पलायन करने के लिए विवश हो गया। जिसको जहां जगह मिली वह वहां भाग कर चला गया। कुछ यहूदी भूमि के रास्ते पड़ोसी देशों में भागकर जाने लगे तो कुछ ने अपनी नौकाओं को यह कहकर समंदर में डाल दिया कि यदि ईश्वर चाहेगा तो वह उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुंचा देगा।
इन नौकाओं में उपस्थित अधिकतर यहूदीजन समुद्री तूफ़ानों एवं भूख-प्यास आदि के कारण काल-कवलित हो गए। इनमें से बहुत कम यहूदी ऐसे बचे जो कि विश्व के अन्य देशों के समुद्र-तटों पर सुरक्षित पहुंचने में सफल रहे। स्थल पर पहुंचने के पश्चात भी यहूदियों की समस्याओं का अंत नहीं हुआ। विश्व के अनेक देशों के समुद्र-तटों पर पहुंचने के पश्चात भी अधिकतर यहूदियों को उन देशों के लोगों के द्वारा प्रताड़ित किया गया। कुछ को स्थानीय जनजातियों के द्वारा मार भी डाला गया। यह केवल भारत ही विश्व का एकमात्र देश था जिसके समुद्र-तटों पर पहुंचने वाले यहूदियों का यहां की स्थानीय हिंदू जनता ने न केवल हृदय खोलकर स्वागत किया बल्कि ‘अतिथि देवो भवः’ की पुरातन सनातनी परंपरा का पालन करते हुए उन्हें यथोचित मान-सम्मान प्रदान किया। इसके अतिरिक्त भारतीय हिंदुओं ने अपने अतिथि यहूदियों को आजीविका के उचित साधन उपलब्ध करवाते हुए भारत के आम नागरिकों की तरह समान अधिकार प्रदान किए। बदले में ये महान यहूदीजन भी ढाई हज़ार वर्षों तक भारत को अपनी मातृभूमि का दर्ज़ा देते हुए सदैव भारत के प्रति निष्ठावान रहे और इसकी प्रगति में बराबर योगदान करते रहे।
वर्ष 1918 में जोधपुर रियासत के सेनानायक मेज़र दलपत सिंह ने मैसूर और हैदराबाद राज्यों की रियासतों को साथ लेकर हिंदू राजपूतों एवं भारतीय यहूदियों की मिश्रित सेना के साथ चमत्कारिक रूप से हाइफ़ा शहर को तुर्की के ऑटोमन साम्राज्य से आज़ाद करा लिया। मेज़र दलपत सिंह की इस जीत ने ही बाद में वर्तमान इज़रायल राष्ट्र के पुनर्निर्माण की आधारशिला रखी। हाइफ़ा नगर पर कब्ज़े के बाद भारत सहित विश्व के तमाम यहूदीजन अपने पुरातन देश इज़रायल का दोबारा से गठन करने के लिए बेचैन एवं उद्यत हो उठे।
वर्ष 1897 में गठित की गई वर्ल्ड जियोनिस्ट कांग्रेस एवं वर्ष 1936 में गठित की गई वर्ल्ड ज्यूइश कांग्रेस ने वैश्विक यहूदी घरानों के द्वारा प्रदान किए गए छोटे-छोटे चंदे से एक बहुत बड़ी ‘यहूदी निधि-कोष’ की स्थापना की। इसके बाद वैश्विक यहूदी समुदाय को तत्कालीन फ़िलिस्तीन में जाकर इस धन से अधिक से अधिक मात्रा में स्थानीय ज़मीनों को क्रय करने के निर्देश जारी किए गए। वैश्विक यहूदी समुदाय ने छोटे-छोटे चंदे के परिणामस्वरूप प्राप्त हुई इस बड़ी निधि से न केवल तत्कालीन फ़िलिस्तीन में भारी मात्रा में ज़मीनों का अधिग्रहण किया बल्कि वर्ष 1940 में एक ऐसी सीक्रेट एजेंसी का भी गठन कर डाला जो महान स्वप्निल यहूदी राष्ट्र के निर्माण की राह में आने वाले समस्त अवरोधकों को बेहद गोपनीय तरीके से हटाने का काम कर सके। सनद रहे कि वर्ष 1940 में गठित हुई यही सीक्रेट एजेंसी, वर्ष 1948 में स्वतंत्र इज़रायल राज्य के गठन का एक महत्वपूर्ण कारक सिद्ध होते हुए ‘HaMossad leModiʿin uleTafkidim Meyuḥadim’ अर्थात ‘मोसाद’ के नाम से विश्व-विख्यात हुई।
वर्ष 1948 के बाद इज़रायल राष्ट्र ने सर्वप्रथम अपनी इस एजेंसी को दो बेहद महत्वपूर्ण कामों पर लगाया। इस एजेंसी का पहला काम यह निर्धारित किया गया कि वह इस बात का पता लगाए कि दुनिया के अंदर किस-किस व्यक्ति अथवा समूह ने उसके समुदाय के लोगों के ऊपर अत्याचार किए और उनके समुदाय के लिए लोगों के हृदयों में नफ़रतें पैदा कीं? इस एजेंसी को सौंपा जाने वाला दूसरा कार्य यह था कि वह इस बात का पता लगाए कि किन-किन लोगों ने उनके समुदाय के लोगों को सामाजिक आर्थिक एवं रणनीतिक सहायताएं प्रदान कीं! इसके बाद इज़रायल ने सार्वजनिक घोषणा करते हुए पहली श्रेणी के लोगों को अपना दुश्मन और दूसरी श्रेणी के लोगों को अपना दोस्त घोषित किया।
इसके बाद इज़रायली एजेंसी मोसाद के वे हाहाकारी ऑपरेशन्स शुरू हुए कि जिनकी मिसालें आज भी दी जाती हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त हो जाने के पश्चात यहूदियों पर अत्याचार करने वाले वे तमाम लोग जो दुनिया के विभिन्न देशों में जाकर छुप गए थे, मोसाद ने एक-एक करके उनको ‘ढूंढना’ और फिर ‘ठोंकना’ शुरू कर दिया। साथ ही साथ अपने ऐसे सहयोगियों को मदद प्रदान करना भी शुरू कर दिया जिन्होंने इज़रायल राष्ट्र के गठन में सकारात्मक भूमिकाएं निभाते हुए यहूदी समुदाय को संबल प्रदान किया था।
इज़रायल के ऐसे ही अनेक सहयोगियों में एक यहूदी सहयोगी ‘सर आइज़ैक कोहेन’ (परिवर्तित नाम) भी थे जिनके पूर्वज आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व इज़रायल से अपनी जान बचाकर समुद्री मार्ग से यात्रा करके भारत के कोच्चि नामक स्थान पर शरणार्थी बनकर पहुंचे थे। कालांतर में यहूदियों के वे समूह कुछ शताब्दियों तक वर्तमान केरल एवं महाराष्ट्र राज्य में निवास करने के पश्चात क्रमशः वर्ष 1605 एवं वर्ष 1775 के आसपास जोधपुर की सवाई राजा सूरजमल सल्तनत एवं वड़ोदरा की सयाजीराव गायकवाड सल्तनत में जा बसे और अपनी वीरता, योग्यता एवं निष्ठा के बल पर इन राज्यों की सेनाओं में ओहदेदार सिपहसालारों की सूची में शामिल हुए। वर्ष 1948 में इज़रायल राष्ट्र के गठन के पश्चात इज़रायल मूल के ये यहूदी सहयोगी सर आइज़ैक कोहेन, तत्कालीन जोधपुर नरेश से अनुमति लेकर अपनी 3 वर्ष की मां-रहित बेटी को जोधपुर रियासत के ही एक रसूख़दार राजपूत सरदार की निगहबानी में देकर अपनी पितृभूमि इज़रायल की रक्षा करने के लिए इज़रायली सेना में शामिल हो गए और इज़रायल राष्ट्र की रक्षा करते हुए मई 1948 में इज़रायल-जॉर्डन सीमा-संघर्ष में अपने सर्वोच्च बलिदान को प्राप्त हुए।
10 मार्च, 1949 को जब युद्ध विराम हुआ और 20 जुलाई, 1949 को ‘अरब इज़रायल समझौते’ की घोषणा हुई तो उसके बाद इज़राइल ने अपने सैनिकों एवं बलिदानियों को यथोचित सम्मान देना प्रारंभ किया। चूंकि उस समय इज़रायल राष्ट्र का नया-नया गठन ही हुआ था और उस क्षेत्र में केवल और केवल युद्ध का ही माहौल था, इसलिए विश्व भर से इज़रायल की सेना में भर्ती होने के लिए आने वाले यहूदी लोग अपने-अपने परिवारों को इज़रायल न लाकर अपने-अपने पूर्व स्थानों में ही छोड़कर आए थे। वर्ष 1950 से लेकर वर्ष 1965 के मध्य इज़रायल ने विश्व के हर उस परिवार के घर पर अपने राजनयिकों अथवा प्रतिनिधियों को भेजकर धन्यवाद ज्ञापित करवाया जिनके लाड़लों ने अपना जीवन बलिदान करके 3,000 वर्ष से भी अधिक पुराने यहूदी राष्ट्र ‘इज़रायल’ का पुनर्गठन किया था। साथ ही साथ इज़रायल ने समस्त वैश्विक समुदाय के यहूदियों से स-सम्मान इज़रायल राष्ट्र में आकर बसने का आग्रह भी किया। बहुत से यहूदी ऐसे थे जो इज़रायल के आग्रह पर वहां प्रस्थान कर गये परंतु बहुत से यहूदी ऐसे भी थे जिन्होंने विभिन्न कारणों से इज़रायल में न जाकर अपने-अपने पूर्व स्थानों पर ही रहना उचित समझा। ऐसे ही लोगों में एक नाम इज़रायल के सर्वोच्च बलिदानी सैन्य अधिकारी सर आइज़ैक कोहेन की बेटी सारा कोहेन (परिवर्तित नाम) का भी था जिन्होंने इज़रायल सरकार द्वारा इज़रायल आने के बारंबार अनुरोध करने के पश्चात भी स्वेच्छा से अपने पूर्वजों की कर्मभूमि भारत में रहकर ही हिंदू-यहूदी एकता की बेल का सिंचन करते हुए एक हिंदू युवक से विवाह कर लिया था।
एक हिंदू युवक से विवाह करने के पश्चात भी इज़रायल की सरकार ने अपने बलिदानी की बेटी की अभिभावकता का परित्याग नहीं किया। हालांकि विवाहोपरांत उसके निजी अनुरोध पर इज़रायल सरकार की ओर से प्राप्त होने वाली उसकी आर्थिक सहायता बंद कर दी गई परंतु इज़रायली सरकार ने अपने बलिदानी की रक्तजा से उसकी अंतिम सांस तक पत्राचार के द्वारा संपर्क स्थापित रखा और बराबर अपने पत्रों के अंत में ‘आलिया’ यानी कि स्वदेश-वापसी के लिए अनुरोध करती रही।
यदि आप यहां पर यह सोच रहे हैं कि सारा कोहेन की मृत्यु के पश्चात इज़रायल ने उसके उत्तरदायित्वों की क़ैफ़ियत (हालचाल) के बारे में पूछने का कार्य बंद कर दिया होगा तो आप यहां पर बिल्कुल ग़लत हैं। इज़राइल आज भी बराबर सारा कोहेन की संतानों के संपर्क में है और वह तब तक अपनी संपर्कता से मुक्त नहीं होगा जब तक विश्व के किसी भी कोने में हिंदू-यहूदी प्रतिबद्धता के दीपक की अंतिम लौ प्रज्ज्वलित होती रहेगी।
हम हिंदू भी हैं और इज़रायली भी हैं। हिंदू चेतना और यहूदी जीवटता हमारे डीएनए में है। शातिर दुश्मन और सच्चे दोस्त- इन दो लोगों को हम अपनी अंतिम सांस तक कभी नहीं भूलते हैं। हमारी नीति है कि जो एक बार हमसे बाहर जाता है, वह ‘हमेशा के लिए चला जाता है’। ग़द्दार और धूर्त दुरात्माओं के लिए हम ‘सुधारने’ नहीं बल्कि ‘सिधारने’ की नीति पर अमल करते हैं। इसके विपरीत जो एक बार हमसे निष्ठित होता है, वह हमेशा के लिए हमारा हो जाता है। उसकी हंसी, ख़ुशी, आपदाएं, विपदाएं- इन सभी में हमारी बराबर की हिस्सेदारी होती है। कुल मिलाकर दुश्मन हो या दोस्त- हम छोड़ते किसी को भी नहीं हैं, दुश्मनी हो या दोस्ती- मुंह मोड़ते बिल्कुल भी नहीं हैं…
शलोॐ…!