हल्दीघाटी: अमर सेनानी महाराणा प्रताप के जीवन चरित्र पर आधारित एक ऐतिहासिक महाकाव्य…

Haldighati by Shyam Narayan Pandey

आज भारतमाता के वीर सपूत, महान योद्धा एवं अद्भुत शौर्य व साहस के प्रतीक महाराणा प्रताप की जयंती है। अंग्रेज़ी कैलेंडर के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 को कुंभलगढ़ दुर्ग (पाली) में हुआ था परंतु राजस्थानी राजपूत समाज का एक बड़ा तबका उनका जन्मदिन हिंदू तिथि के हिसाब से मनाता है। चूंकि सन 1540 में 9 मई को ज्येष्ठ शुक्ल की तृतीया तिथि थी, इसलिए इस हिसाब से इस साल उनकी जयंती 15 मई को भी मनाई जाएगी।

चित्र: अमर सेनानी महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप का जन्म महाराजा उदयसिंह एवं माता राणी जीवत कंवर के घर में हुआ था। उन्हें बचपन और युवावस्था में ‘कीका’ नाम से भी पुकारा जाता था। ये नाम उन्हें भीलों से मिला था जिनकी संगत में उन्होंने शुरुआती दिन बिताए थे। भीलों की बोली में ‘कीका’ का अर्थ होता है – ‘बेटा’। महाराणा प्रताप के पास चेतक नाम का एक घोड़ा था जो उन्हें सबसे प्रिय था। प्रताप की वीरता की कहानियों में चेतक का अपना स्थान है। उसकी फुर्ती, गति और बहादुरी से राणा को कई लड़ाइयां जीतने में मदद मिली।

वैसे तो महाराणा प्रताप ने मुग़लों से कई लड़ाइयां लड़ीं लेकिन उनमें सबसे ऐतिहासिक लड़ाई थी- ‘हल्दीघाटी का युद्ध’ जिसमें हिंदू-द्रोही राजा मानसिंह के नेतृत्व में मुगल बादशाह अकबर की विशाल सेना से उनका आमना-सामना हुआ था। सन 1576 में हुए इस भीषण युद्ध में करीब 20 हज़ार सैनिकों के साथ महाराणा प्रताप ने 80 हज़ार मुगल सैनिकों (एक अनुपात चार) का सामना किया था। यह मध्यकालीन भारतीय इतिहास का सबसे चर्चित युद्ध है। इस युद्ध में महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक ज़ख़्मी होकर स्वर्ग सिधार गया था। इस युद्ध में अमर बलिदानी सरदार झाला मानसिंह जी के चिर-स्मरणीय महा-बलिदान की गाथा का विस्मरण करना भारत के इतिहास के साथ द्रोह होगा।

सरदार झाला मानसिंह के महा-बलिदान के परिणामस्वरूप ही महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध के दौरान मेवाड़ की भावी-स्वतंत्रता की आशा को जीवित रख पाने में सक्षम हुए थे। जब महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध में उतरे तो झाला मान एक शूरवीर सेनापति के रूप में मौजूद थे। कहते हैं, विश्व में झाला मानसिंह को छोड़ ऐसा कोई राजवंश नहीं हुआ जिसने अपने नरेश की रक्षा के लिए स्वयं को ढाल की तरह प्रयोग किया हो। झाला मानसिंह का एक नाम ‘बीदा जी’ भी था।

चित्र: राजा भामाशाह एवं महाराणा प्रताप की स्मृति में जारी डाक टिकट

कहते हैं कि झाला मान सिंह दिखने में हू-ब-हू राणा प्रताप जैसे ही थे। ये झाला मानसिंह ही थे, जिन्होंने हल्दीघाटी युद्ध में राणा की सेना को कमज़ोर पड़ते समय मुग़ल सैनिकों को घायल राणा पर आक्रमण के लिए आतुर होते हुए भांप लिया था। इसके बाद हल्दीघाटी के युद्ध में जिस समय राणा ने अपने घोड़े चेतक को मानसिंह के हाथी पर चढ़ाया और अपने भाले का प्रहार किया तो उस समय मानसिंह तो बच गया लेकिन उसका महावत मारा गया। राणा को उसी समय चारों तरफ़ से मुग़ल सैनिकों ने घेर लिया और घायल कर दिया। ऐसे में राणा का रणभूमि में ज्यादा समय तक टिके रहना ख़तरनाक हो सकता था क्योंकि मुग़ल सेना का एकमात्र मकसद राणा को पकड़ना या माैत के घाट उतारना ही था। इसके बाद झाला मानसिंह ने स्वयं राजछत्र, चंवर आदि उतारकर धारण कर लिए और रणक्षेत्र में राणा का स्थान ले लिया। इसके बाद उन्होंने राणा को चेतक पर सवार होकर आगे के युद्ध की तैयारियों को जारी रखने के लिए फ़ौरन रणक्षेत्र से निकल जाने का आग्रह किया। मेवाड़ के भविष्य को देखते हुए राणा वहां से निर्जन स्थान की ओर निकल पड़े। राजचिह्नों से भ्रमित मुग़ल सेना झाला को प्रताप समझ उन पर टूट पड़ी और एक भीषण युद्ध के बाद अमर सेनानी झाला मानसिंह वीरगति को प्राप्त हुए।

चित्र: महाराणा प्रताप स्मारक, उदयपुर (राजस्थान)

हालांकि इस युद्ध के बाद मेवाड़, चित्तौड़, गोगुंडा, कुंभलगढ़ और उदयपुर पर मुग़लों का कब्जा हो गया था एवं अधिकांश राजपूत राजा मुग़लों के अधीन हो गए थे लेकिन मुग़लों द्वारा छेड़े गए इस युद्ध के पीछे का मूल उद्देश्य महाराणा प्रताप को जीवित पकड़ना अथवा उनको मौत के घाट उतारना था। चूंकि इस युद्ध के पश्चात मुग़लों को महाराणा प्रताप को पकड़ने अथवा उन्हें मारने में सफ़लता प्राप्त नहीं हुई एवं महाराणा प्रताप अपनी छोटी-सी सेना के द्वारा मुग़लों की बड़ी सेना का भारी नुकसान करके वहां से सुरक्षित निकल गए। अतः वामपंथी इतिहासकारों की दृष्टि में इस युद्ध का परिणाम अनिर्णीत ही माना गया।

महाराणा ने कभी भी अपने स्वाभिमान को छोड़कर मुग़ल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। उन्होंने जंगलों में घास की रोटियां खाईं पर मुगलों के सामने घुटने नहीं टेके। महाराणा जंगलों में विचरण करते हुए अपनी बची हुई सैन्य शक्ति को संगठित करने के कार्य में लग गए। यहां पर उनके समक्ष सबसे बड़ी समस्या सेना को तैयार करने के लिए आने वाले धन को लेकर थी। तभी जैन सामन्त भारमल के पुत्र एवं रणथंभौर के किलेदार सेठ भामाशाह जैसे महा-दानवीर के सहयोग से महाराणा प्रताप की क्षीण होती सैन्य-शक्ति को आर्थिक-सम्बल प्राप्त हुआ।

महा-दानवीर भामाशाह का निष्ठापूर्ण सहयोग महाराणा प्रताप के जीवन में महत्वपूर्ण और निर्णायक साबित हुआ। मातृ-भूमि की रक्षा के लिए राणा का सर्वस्व होम हो जाने के बाद भी उनके लक्ष्य को सर्वोपरि मानते हुए अपनी सम्पूर्ण धन-संपदा अर्पित कर दी। उन्होंने यह सहयोग तब दिया जब महाराणा प्रताप अपने और मेवाड़ के अस्तित्व बचाए रखने के प्रयास में निराश होकर परिवार सहित पहाड़ियों में छिपते-छिपते भटक रहे थे। भामाशाह ने मेवाड़ की अस्मिता की रक्षा के लिए दिल्ली की गद्दी द्वारा उच्च पद का प्रलोभन भी ठुकरा दिया। महाराणा प्रताप को दी गई उनकी हरसम्भव सहायता ने मेवाड़ के आत्मसम्मान एवं संघर्ष को नई दिशा दी। राणा को अपना सर्वस्व दान करके महा-दानी भामाशाह अपनी दानवीरता के कारण हमेशा-हमेशा के लिए इतिहास में अमर हो गए। आज भी दानवीर भामाशाह की दानशीलता के प्रसंग पूरे भारत में बड़े उत्साह के साथ सुने और सुनाए जाते हैं।

वीडियो: महाराणा प्रताप: एक स्वाभिमानी जीवट योद्धा

हल्दीघाटी के युद्ध में भारी क्षति होने के बाद महाराणा प्रताप को भामाशाह ने अपनी निजी सम्पत्ति में से इतना धन दान में दिया था कि जिससे 25,000 सैनिकों का बारह वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। भामाशाह से प्राप्त सहयोग से महाराणा प्रताप की सैन्य-शक्ति में नया उत्साह उत्पन्न हुआ और उन्होंने पुन: अपनी सैन्य शक्ति संगठित कर मुग़ल शासकों को पराजित करके पुनः मेवाड़ की स्वतंत्रता स्थापित की।

सन 1582 में दिवेर के युद्ध में राणा प्रताप ने उन क्षेत्रों पर फिर से कब्ज़ा जमा लिया जो उन्होंने कभी मुग़लों के हाथों गंवा दिए थे। कर्नल जेम्स टॉ ने मुग़लों के साथ हुए इस युद्ध को मेवाड़ का मैराथन कहा था। सन 1585 तक लंबे संघर्ष के बाद राणा मेवाड़ को मुग़लों के हाथों पूर्णतः मुक्त करवाने में सफल रहे। सन 1596 में शिकार खेलते समय उन्हें एक चोट लगी जिससे वह गंभीर रूप से घायल हो गए। इस चोट से वह कभी भी उबर नहीं पाए। अंततः 19 जनवरी 1597 को सिर्फ 57 वर्ष की आयु में चावड़ में उनका महाप्रयाण हो गया।

चित्र: हल्दीघाटी उदयपुर (राजस्थान)

गणपति के पावन पांव पूज,
वाणी–पद को कर नमस्कार।
उस चण्डी को, उस दुर्गा को,
काली–पद को कर नमस्कार॥१॥

उस कालकूट पीने वाले के
नयन याद कर लाल–लाल।
डग–डग ब्रह्माण्ड हिला देता
जिसके ताण्डव का ताल–ताल ॥२॥

ले महाशक्ति से शक्ति-भीख
व्रत रख वनदेवी रानी का।
निर्भय होकर लिखता हूं मैं
ले आशीर्वाद भवानी का ॥३॥

मुझको न किसी का भय–बन्धन
क्या कर सकता संसार अभी।
मेरी रक्षा करने को जब
राणा की है तलवार अभी ॥४॥

मन भर लोहे का कवच पहन,
कर एकलिंग को नमस्कार।
चल पड़ा वीर, चल पड़ी साथ
जो कुछ सेना थी लघु–अपार ॥५॥

घन–घन–घन–घन–घन गरज उठे
रण–वाद्य सूरमा के आगे।
जागे पुश्तैनी साहस–बल
वीरत्व वीर–उर के जागे॥६॥

सैनिक राणा के रण जागे
राणा प्रताप के प्रण जागे।
जौहर के पावन क्षण जागे
मेवाड़–देश के व्रण जागे ॥७॥

जागे शिशोदिया के सपूत
बापा के वीर–बबर जागे।
बरछे जागे, भाले जागे,
खन–खन तलवार तबर जागे ॥८॥

कुम्भल गढ़ से चलकर राणा
हल्दीघाटी पर ठहर गया।
गिरि अरावली की चोटी पर-
‘केसरिया–झंडा फहर गया’ ॥९॥

विशेष: उपरोक्त काव्यांश महाकवि पंडित श्याम नारायण पांडेय द्वारा रचित ऐतिहासिक महाकाव्य ‘हल्दीघाटी से उद्धृत किए गए हैं। इस महाकाव्य में पंडित जी ने अमर सेनानी महाराणा प्रताप के जीवन चरित्र एवं हल्दीघाटी के महायुद्ध का जीवंत चित्रण किया है। आज की हिंदू युवा-पीढ़ी को ‘हल्दीघाटी’ नामक यह कालजयी कृति अवश्य पढ़नी चाहिए। इस पुस्तक को आप टीम बाबा इज़रायली द्वारा विकसित किए जा रहे ‘ई-पुस्तकालय‘ में जाकर पढ़ सकते हैं। आने वाले समय में आपको हमारे इस ई-पुस्तकालय में हिंदू-चेतनाओं, उससे जुड़ी विषमताओं एवं विभीषिकाओं से संबंधित दुर्लभ हिंदू-साहित्य प्राप्त होगा।

शलोॐ…!