मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के स्मरणीय चरित्र की पवित्रता

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यदि किसी व्यक्ति के अंदर धर्म एवं धर्म की मर्यादा के विषय में जानने की उत्सुकता है तो उसे महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित श्री राम के जीवन का अक्षरशः वर्णन करने वाले आदि-ग्रंथ ‘रामायण’ का अध्ययन करना चाहिए और उसमें संदर्भित श्री राम के चारित्रिक गुणों का अवलोकन करना चाहिए। श्री राम का चरित्र वस्तुतः एक आदर्श धर्मात्मा का जीवन-चरित्र है।

श्री राम अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ-पुत्र थे। वे अत्यंत ही प्रतापी, सहनशील, धर्मात्मा, प्रजापालक, निष्पाप, दयालु एवं निष्कलंक थे। मानव समाज के लिए आदर्श व्यवहार की मर्यादाएं स्थापित करने के कारण भारत समेत विश्व के अनेक राष्ट्र उन्हें ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ के रूप में पूजते हैं। अधिकांश श्री राम भक्तों की मानें तो काल-गणना के अनुसार श्री राम आज से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व त्रेतायुग के अंत में प्रकट हुये थे। उनके समकालीन ऋषि महर्षि वाल्मीकि ने अपने महान ग्रंथ ‘रामायण’ में उनके संपूर्ण जीवन-चरित्र के विषय में विस्तारपूर्वक वर्णन किया हुआ है।

एक बार महर्षि वाल्मीकि अपने आश्रम में चुपचाप बैठे थे। तभी अचानक घूमते हुये वहाँ पर नारद मुनि आ पहुंचे। महर्षि वाल्मीकि ने नारद मुनि से पूछा, “इस संसार में वीर, धर्म को जानने वाला, कृतज्ञ, सत्यवादी, चरित्रवान, समस्त प्राणियों का हितकारी, विद्वान, उत्तम कार्य करने में समर्थ, सब के लिये प्रिय-दर्शन वाला, जितेन्द्रिय, क्रोध को जीतने वाला, तेजस्वी, ईर्ष्या न करने वाला, युद्ध में क्रोध आने पर देव भी जिससे भयभीत हो जाएं- ऐसा मनुष्य के विषय में जानने की मुझे बहुत उत्सुकता है।” तब नारद मुनि ने ऐसे बहुत से दुर्लभ गुणों वाले श्री राम के संपूर्ण जीवन-वृतांत के विषय में कह सुनाया।

एक बार महाराजा दशरथ ने श्री राम को युवराज बनाने का अपना विचार राजसभा के समक्ष रखा। सभा ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए श्री राम के गुणों का वर्णन इस प्रकार किया कि प्रजा को सुख देने में श्री राम चंद्रमा के तुल्य हैं, वे धर्मज्ञ, सत्यवादी, शीलयुक्त, ईर्ष्या से रहित, शांत, दुखियों को सांत्वना देने वाले, मृदुभाषी, कृतज्ञ एवं जितेंद्रिय हैं। प्रजा पर कोई आपत्ति आने पर वे स्वयं दुःखी होते हैं एवं उत्सव के समय पिता की भांति प्रसन्न होते हैं। उनका क्रोध एवं उनकी प्रसन्नता कभी निरर्थक नहीं होती। वे मारने योग्य को मारते हैं और निर्दोषों पर कभी भी क्रोध नहीं करते।

श्री राम के गुणों का वर्णन स्वयं उनकी सौतेली माँ कैकेयी तक ने किया है। जब श्री राम को राजतिलक देने का निर्णय हुआ तब सभी लोगों को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। कैकेयी को यह समाचार उनकी दासी मंथरा ने जाकर दिया। तब कैकेयी आनंद विभोर हो गयीं और अपना एक बहुमुल्य हार दासी को देकर कहने लगीं कि हे मंथरे ! तूने यह अत्यंत ही आनंददायक समाचार सुनाया है। इसके बदले में मैं तुम्हें और क्या दूं? परंतु मंथरा ने द्वेष से भरकर कहा कि राम के राजा बनने से तेरा, भरत का और मेरा हित न होगा। तब कैकेयी राम के गुणों का वर्णन करते हुई बोलीं कि राम धर्मज्ञ, गुणवान, जितेंद्रिय, सत्यवादी और पवित्र हैं तथा बड़े पुत्र होने के कारण वे ही राज्य के वास्तविक उत्तराधिकारी भी हैं। राम अपने भाइयों एवं सेवकों का अपनी संतान की तरह पालन करते हैं।

वाल्मीकि रामायण में महर्षि वशिष्ठ के शब्दों में श्री राम की महत्ता को कुछ इस तरह से परिभाषित किया गया है-

आहूतस्याभिषेकाय विसृष्टस्य वनाय च।
न मया लक्षितस्तस्य स्वल्पोऽप्याकारविभ्रमः।।

अर्थात, राज्याभिषेक के लिए बुलाए गए और वन के लिए विदा किये गए श्री राम के मुख के आकार में मैंने कभी भी कोई भी अंतर नहीं देखा। एक ओर जहां राज्याभिषेक के सुअवसर पर उनके मुख-मंडल पर कोई प्रसन्नता नहीं थी तो वहीं दूसरी ओर वनवास-गमन के कुअवसर पर भी भावी दुःखों को लेकर उनके चेहरे पर शोक की रेखाएं नहीं थीं।

उदये सविता रक्तो रक्तरचास्तमये तथा।
सम्पत्तौ च विपत्तौ न महतामेकरूपता।।

अर्थात, सूर्य उदय होता हुआ लाल होता है और अस्त होता हुआ भी लाल होता है। इसी प्रकार महापुरुष संपत्ति और विपत्ति में समान ही रहते हैं। वे संपत्ति प्राप्त होने पर हर्षित और विपत्ति पड़़ने पर दुःखी नहीं होते हैं।

वन जाते हुए श्री राम अयोध्यावासियों से कहते हैं कि आप लोगों का मेरे प्रति जो प्रेम व सम्मान है, यदि आप भरत के प्रति भी वैसा ही प्रेम व सम्मान व्यक्त करेंगे तभी मुझे वास्तविक प्रसन्नता का अनुभव होगा।

श्री राम के चरित्र की महत्ता का पता इस बात से भी चलता है कि अपने नाना के घर से अयोध्या लौटने पर जब भरत और शत्रुघ्न को पता लगा कि श्री राम को वनवास के लिए भेजने के सारे पाप की जड़ मंथरा है तो शत्रुघ्न को उस पर बहुत क्रोध आया और वह उसे पकड़कर भूमि पर घसीटने लगे। तब भरत ने शत्रुघ्न से कहा कि यदि श्री राम को मंथरा के मारने का पता चल गया तो वे हम दोनों से बात तक न करेंगे।

हनुमान जी अशोक वाटिका में सीता जी से श्री राम के विषय में कहते हैं-

यजुर्वेदविनीतश्च वेदविद्भिः सुपूजितः।
धनुर्वेदे च वेदे च वेदांगेषु च निष्ठितः।।

अर्थात, श्री राम यजुर्वेद में पारंगत हैं। बड़े-बड़े ऋषिगण भी इसके लिए उनको मानते अर्थात आदर देते हैं तथा वे धनुर्वेद और वेद-वेदांगों में भी प्रवीण हैं।

श्री राम का वेद-वेदांगों में प्रवीण होना उनके जीवन की सात्विकता एवं ऋषि होने का साक्षात प्रमाण है। प्रभु श्री राम से प्रार्थना है कि वे समस्त ब्रह्मांड में फैली मानवता एवं जीवटता को अपने पावन जीवन-चरित्र की महत्ता से पल्लवित एवं आशीषित करने की महती कृपा करें।

शलोॐ…!