‘मानवता-विरोधी वैश्विक बीमारी’ से बचाव एवं मुक़ाबला कैसे होगा ?

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हमने अपने पिछले वक्तव्य में जिस ‘मानवता विरोधी वैश्विक बीमारी’ की भयावहता की चर्चा की थी, इस वक्तव्य में हम उससे बचाव एवं निपटने जैसे मामलों के ठोस-प्रबंधन के बारे में बात करेंगे। इसके लिए सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि दुनिया के अंदर कोई भी लकीर छोटी या बड़ी नहीं होती। किसी लकीर का छोटा अथवा बड़ा होना केवल ‘सापेक्षता के सिद्धांत’ पर निर्भर करता है। इस समय आपको पूरी दुनिया के अंदर जितनी भी संघर्ष की घटनाएं दिखाई पड़ रही हैं, हो सकता है कि प्रथम दृष्टया आपको यह लगे कि संघर्ष की वे घटनाएं व्यक्तियों, समूहों अथवा गुटों के आपसी टकराव का परिणाम हैं परंतु यदि आप उन घटनाओं के मूल में जाकर देखेंगे तो आप यह पाएंगे कि दुनिया के प्रत्येक हिस्से में घटित होने वाली ऐसी घटनाएं, व्यक्तिगत, समूहगत अथवा राष्ट्रगत संघर्ष का नहीं बल्कि केवल और केवल वैचारिक अर्थात विचारधारा के संघर्ष का परिणाम हैं।

इन संघर्षों का पूर्व-इतिहास हमें यह बताता है कि इन समस्त घटनाओं के दौरान जीत केवल उसी पक्ष की हुई है जो पक्ष अपनी विचारधारा को अधिक मज़बूती के साथ पकड़े रहा है।  शायद यही वजह है कि दुनिया का एक समुदाय जो कि जनसंख्या के आधार पर विश्व के सबसे छोटे समुदायों में गिना जाता है, उसने तक अपने अदम्य साहस और जीवटता के दम पर न केवल पिछले 2,000 वर्ष पूर्व अपने हाथ से निकल चुके साम्राज्य को पुनः प्राप्त किया बल्कि उसके बाद स्वयं को इतना अभेद्य बनाया कि उसका कोई भी शत्रु आज उसकी तरफ़ आंख उठाने का भी साहस नहीं करता है। यही नहीं, दुनिया का सबसे क्रूरतम आतंकवादी संगठन, जिसने हज़ारों मील की दूरियों पर स्थित दुनिया के अनेक देशों के नागरिकों के ख़ुलेआम सिर क़लम किए परंतु कुछ ही मील की दूरी पर स्थित उस समुदाय के ऊपर आंख उठाने की ज़ुर्रत नहीं की। दूसरे शब्दों में यदि कहा जाए तो जो मानवता-विरोधी तत्व पूरी दुनिया को अपने कुकृत्यों के द्वारा आतंकित किया करते हैं, वे तत्व उस समुदाय की ओर आंख उठाने से पहले एक बार नहीं बल्कि हज़ार बार सोचा करते हैं। शुरुआती संघर्षों के बाद प्राप्त हुए परिणामों के उपरांत उस समुदाय ने अपने शत्रुओं के दिलों में ऐसा खौफ़ भर दिया है कि वे उसकी ओर आंख उठाकर देखना तो दूर, स्वप्न में भी उसका स्मरण हो आने पर अपनी नींद और चैन खो बैठते हैं।

अपनी 60 लाख आत्माओं के बलिदान से सबक़ लेकर वह जीवट समुदाय आज अपने अस्तित्व के बारे में इतना अधिक संवेदनशील है कि उसके विद्यालयों में यदि कोई शिक्षक उसके समुदाय के बच्चों को उदारता अथवा सहिष्णुता की अधिक मिठाई खिलाने का प्रयास भी करता है तो अगले दिन लोकल अख़बारों में उसके हार्ट-अटैक की ख़बर सुनाई पड़ती है और उसकी पत्नी को विधवा-पेंशन जारी कर दी जाती है लेकिन इधर पिछले 800 वर्षों से अधिक की समयावधि में अपने 8 करोड़ से अधिक पूर्वजों को खोने के बाद भी हम महान भारतीयों को अपने अस्तित्व के शत्रुओं के बारे में सोचने का कभी समय व अवसर नहीं मिलता। अपने धर्म एवं राष्ट्र के प्रति अपनी निष्ठाओं को अविचलित रखने के स्थान पर हम लोग हमेशा ही जाति, वर्ग, पंथ, संप्रदाय, प्रांत, भाषा, नस्ल एवं अवसरवादी राजनीतिक दलों के प्रति अपनी निष्ठाओं को तरजीह देकर अपना एवं अपनी भावी पीढ़ियों का भविष्य अंधकारमय करते रहते हैं। इसके अलावा यह भी सर्वविदित तथ्य है कि हमने अपने सिसकते भूत से सबक़ लेकर अपने भविष्य को उज्ज्वल रखने के लिए आवश्यक प्रयासों को अंजाम देने के स्थान पर, स्वार्थी एवं धनपशु बनकर स्वयं के वर्तमान को ही आनंदमय बनाने के क्षुद्र प्रयास किए हैं।

कालांतर में हमारी इन्हीं कमियों का फ़ायदा उठाकर हमें समाप्त करने की मंशा रखने वाले लोगों को सफलता मिलती गई और हिंदुकुश से लेकर जावा-सुमात्रा एवं त्रिविष्टप-हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक फैली हुई हमारी विशाल सनातनी आर्य-सभ्यता आज एक छोटे से भूखंड के रूप में सिमटकर रह गई। इतना ही नहीं, सबसे बड़ा दुःख तो इस बात का है कि इतने विशाल प्राचीन आर्यावर्त के शेष बचे हुए भूखंड पर भी हम अपना हक़ बचाकर नहीं रख पाए जिसके कारण आर्यावर्त का यह शेष भूखंड भी आज एक अंतर्राष्ट्रीय धर्मशाला बनकर रह गया। ऐसा केवल और केवल इसलिए हुआ क्योंकि हमारे पास अपनी विचारधारा को अक्षुण्ण रखने और मज़बूत बनाने का कोई साधन एवं उपक्रम मौजूद नहीं था।

उपरोक्त चर्चा के आधार पर हम अभी केवल इतना भर कहना चाहते हैं कि यदि हमें मौजूदा समय में अपने शत्रुओं को पराजित करना है तो इसके लिए हमें सबसे पहले अपनी विचारधारा को एकदम स्पष्ट, परिमार्जित एवं अडिग बनाना पड़ेगा। अपने वैचारिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए हमें शारीरिक रूप से तो सबल बनना ही होगा मगर उससे भी पहले हमें वैचारिक रूप से अत्यंत कठोर होना पड़ेगा। उदाहरणार्थ, एक विजेता अपने दुश्मनों के ऊपर केवल इसलिए विजय नहीं प्राप्त करता है क्योंकि वह हथियार चलाना जानता है बल्कि विजेता इसलिए अपने शत्रुओं के ऊपर विजय प्राप्त करता है क्योंकि वह अपने हथियार को सही प्रकार से, सही शक्ति से, सही समय पर और सही जगह पर चलाना जानता है।

हमारे अस्तित्व के ऐतिहासिक शत्रुओं के पास एक नहीं बल्कि सैकड़ों ऐसे प्रकल्प एवं संस्थान हैं जो वैश्विक रूप से उन्हें अपने लक्ष्यों के प्रति दिशा-निर्देशन प्रदान करते हुए हर प्रकार के संसाधन उपलब्ध करवाते हैं परंतु दुर्भाग्यवश सनातन शिक्षण-व्यवस्था के अंत के बाद से हिंदुओं के पास ऐसा कोई बौद्धिक समूह अथवा संस्थान शेष नहीं है जो उनकी संतानों को समग्र सनातन-चिंतन के साथ शिक्षित करने एवं सामर्थ्य प्रदान करने के लिए अपना योगदान प्रदान कर सके। जब तक हिंदू समुदाय अपने धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं वैचारिक नरेटिव को समग्रता के साथ मिश्रित कर, एक स्पष्ट एवं धर्मनिष्ठ सनातनी विचारधारा के तहत अपनी भावी पीढ़ियों को शिक्षित करने का प्रयास नहीं करेगा, तब तक ‘छुरी-टमाटर बिटवा-माई, भेड़-भेड़िया भाई-भाई…’ जैसी वास्विकता से कोसों दूर रहने वाली सेकुलरी कहावतें उसे कायर, नपुंसक और पराजित-समुदाय बनाती रहेंगी।

शलोॐ…!