‘पृथ्वीराज सिंड्रोम’: आवश्यकता से अधिक उदारवादिता के प्रदर्शन की हिंदुओं की ऐतिहासिक बीमारी…

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अभी कुछ दिनों पहले हमने एक लेख प्रकाशित किया था जिसमें हमने भारतीय सेना के द्वारा पाकिस्तान से हिंदुस्तान की सीमा में घुसपैठ करने वाली दो पाकिस्तानी लड़कियों को तोहफ़े देकर पाकिस्तान विदा करने की कठोर निंदा की थी। साथ ही हमने भारत की जांच एजेंसियों के वरिष्ठ अधिकारियों एवं सरकार के शीर्षस्थ नेताओं से इस बात की अपील भी की थी कि उक्त मामले में संबंधित सैन्य अधिकारियों द्वारा दोनों संदिग्ध पाकिस्तानी जासूस लड़कियों को छोड़ने के निर्णय की समीक्षा एवं जांच भी करवाई जाए। इसके अलावा हमने दोषी पाए जाने पर संबंधित सैन्य अधिकारियों को बर्खास्त करने की भी मांग की थी।

हमारे उपरोक्त लेख पर कई राष्ट्रवादी भाइयों का यह कहना रहा कि चूंकि सेना राष्ट्र-रक्षकों की एक बड़ी संस्था है, अतः हमें उक्त मामले में सेना एवं सेना के निर्णय पर कोई सवाल नहीं उठाना चाहिए था। ऐसा करने से हमारे ऊपर लोगों का भरोसा कम भी हो सकता है और लोग हमारी राष्ट्रवादिता पर प्रश्नचिन्ह भी उठा सकते हैं।

सबसे पहले तो हम अपने उन सभी राष्ट्रवादी भाइयों को अपना धन्यवाद प्रेषित करते हैं जो हमारे विचारों को न केवल ध्यान से पढ़ते हैं बल्कि उन पर अपनी निष्पक्ष प्रतिक्रिया एवं राय हम तक प्रेषित करते हैं। अब चूंकि इस विषय पर जब लोगों के बीच संशय की यह स्थिति उत्पन्न हो ही गई है कि क्या सेना अथवा सेना जैसी किसी राष्ट्रवादी-संस्था के निर्णयों के ऊपर प्रश्न करना उचित है अथवा अनुचित, तो सबसे पहले हमारे द्वारा इस विषय पर अपना तार्किक प्रत्युत्तर प्रदान करना अवश्यंभावी हो जाता है।

इस संशय का समाधान करने के क्रम में सबसे पहले हमें इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना होगा कि किसी भी सेना के गठन के पीछे का मूल उद्देश्य आख़िर क्या होता है? आख़िर क्यों कोई राष्ट्र अपनी सेना का गठन किया करता है? वे कौन-कौन से तत्व हैं जिन पर चलकर किसी राष्ट्र की सेना महान बनती है और वे कौन-कौन से कारक हैं जो किसी देश की सेना को अपराजेय एवं स्तुत्य बनाते हैं?

किसी भी सेना के गठन के पीछे का मूल उद्देश्य उस सेना का गठन करने वाले राष्ट्र की उसके शत्रुओं से रक्षा करना होता है। कोई भी राष्ट्र केवल और केवल इसीलिए अपनी सेना का गठन करता है ताकि उसकी सेना उसके शत्रुओं की चालों को किसी भी प्रकार से नाकाम करके वास्तविक अथवा आभासी युद्ध में उसे सदैव विजयी रखे। किसी भी राष्ट्र की सेना अपने राष्ट्र के हितों को सुनिश्चित करने के लिए हर वह संभव प्रयास करती है जिससे द्वारा उसके राष्ट्र को उसके दुश्मन पर बढ़त प्राप्त हो सके। कुल-मिलाकर किसी भी सेना का मूल उद्देश्य उसके राष्ट्र के सामरिक हितों को सुनिश्चित करना होता है अर्थात किसी राष्ट्र के सामरिक एवं यौद्धिक हितों को सुनिश्चित करने के लिए ही उस राष्ट्र की सेना की कार्यविधि की रूपरेखा सुनिश्चित की जाती है।

यदि किसी राष्ट्र की सेना जानबूझकर अथवा नासमझी में ऐसे कार्य करती है जिनके दूरगामी परिणाम उस राष्ट्र के हितों से मेल नहीं खाते या उसके विरुद्ध होते हैं तो ऐसी स्थिति में किसी भी मूल्य पर उस सेना के द्वारा किए जा रहे कार्यों की प्रशंसा नहीं की जा सकती है। यहां पर हमें इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि प्रत्येक एवं प्रत्येक स्थिति में राष्ट्रहित ही प्रधान है। राष्ट्रीय हितों के लिए कार्य करने वाली संस्थाएं यदि राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध जाकर किसी भी कार्य को करती हैं तो पूर्वार्ध में वे चाहे कितनी भी महान क्यों न रही हों, उस कार्य के लिए उनकी बिल्कुल भी प्रशंसा नहीं की जा सकती है। आसान शब्दों में यदि कहा जाए तो राष्ट्रीय-हितों के मूल्य पर किसी भी सेना की महानता को स्थापित नहीं किया जा सकता।

इसी नीति के तहत यदि बात की जाए तो बीते दिनों की घटना में भी भारतीय सेना के कुछ अधिकारियों के द्वारा पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आइएसआई की संदिग्ध दो नाबालिग़ बहनों को तोहफ़े देकर पाकिस्तान जाने देने का अदूरदर्शी निर्णय किसी भी स्थिति में भारत राष्ट्र के हित में नहीं था। अतः इस मामले पर हमारा भारतीय सैन्य अधिकारियों के निर्णय पर प्रश्न खड़ा करना किसी भी स्थिति में अनुचित नहीं था। व्यक्तिगत क्षमता में हम जैसे हज़ारों-लाखों लोग एवं संस्थागत क्षमता में भारतीय सेना जैसी अनेक संस्थाएं- एक ही राष्ट्रवादी कार्य को अलग-अलग स्तर से कर रही हैं। अतः हमारा यह मानना है कि व्यक्तिगत अथवा संस्थागत रूप से राष्ट्रसेवा करने वाले व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह केवल इसलिए ही महान हैं क्योंकि वे राष्ट्रीय-हितों के लिए कार्य कर रहे हैं।

हम इस बात को पुनः दोहराना चाहेंगे कि राष्ट्रीय हितों के लिए कार्यरत किसी भी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूहों का अदूरदर्शी निर्णय उनकी अपरिपक्वता का ही परिचायक होता है जिसकी क़ीमत आने वाले समय में संबंधित राष्ट्र को ही चुकानी पड़ती है। ऐसा बिलकुल भी ज़रूरी नहीं है कि किसी संस्था के उच्च स्तर पर बैठा कोई व्यक्ति ग़लत निर्णय नहीं ले सकता है। ग़लती किसी से भी हो सकती है और बड़े लोगों से होने वाली ग़लतियां भी प्रायः बड़ी ही होती हैं। भारत के अंतिम हिंदू राजा पृथ्वीराज चौहान से लेकर भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री मैमूना बेगम (इंदिरा गांधी) तक का भारतीय इतिहास ऐसी ही न जाने कितनी ‘पृथ्वीराज सिंड्रोम’ नामक ऐतिहासिक ग़लतियों से पटा पड़ा है। विदित हो कि हिंदुओं द्वारा ‘आवश्यकता से अधिक उदारवादिता के प्रदर्शन’ को हमारी इज़रायली विचारधारा ने ‘पृथ्वीराज सिंड्रोम’ नामक नाम प्रदान किया है। हिंदुओं के इस आवश्यकता से अधिक उदारवादिता के प्रदर्शन ने भारत राष्ट्र का कितना नुकसान किया है, इसका आकलन करने के लिए हमें तराइन के मैदान में पृथ्वीराज चौहान के निर्णयों से लेकर शिमला समझौते में मैमूना बेगम के निर्णयों और उनके वर्तमान परिणामों तक की विस्तृत एवं समग्र समीक्षा करनी होगी।

यदि हम हिंदूजन व्यक्ति-पूजा, समूह-पूजा, संगठन-पूजा, जाति-पूजा, संस्था-पूजा, पार्टी-पूजा अथवा अन्य प्रकार की पूजाओं के स्थान पर केवल और केवल राष्ट्रधर्म की पूजा के प्रति निष्ठावान रहेंगे तो हमें किसी भी स्थिति में ‘भ्रम’ का अंधकार अपने आगोश में नहीं समेट पाएगा और हमारी विचारधारा एवं नरेटिव अनंतकाल तक सदैव अविचलित व अक्षुण्ण रहेंगे!

शलोॐ…!