ग़ज़वा-ए-हिंद की पूर्व तैयारी: गुप्त ठिकाने बनाकर सुरक्षा तंत्र को कमज़ोर करना…

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गुप्त ठिकाने एवं शिविर बनाकर देश के सुरक्षा तंत्र को कमज़ोर करना, ग़ज़वा-ए-हिंद की पूर्व तैयारी का एक बहुत आवश्यक हिस्सा है। इस काम के लिए चुनी गई जगहों पर धीरे-धीरे इस्लामी बस्तियों, मस्जिदों, मदरसों और दरगाहों-मज़ारों आदि को आबाद किया जाता है और जब वहां पर इस्लामी हवा खुल कर बहने लग जाती है तो फिर देश की सुरक्षा-व्यवस्था को कमज़ोर करने के लिए इन संस्थानों को एक सैन्य-अड्डे की तरह इस्तेमाल किया जाता है। आवश्यकता पड़ने पर इन स्थलों पर इस्लामी-समुदाय के लोगों को इकठ्ठा किया जाता है फिर उन्हें भड़काकर स्थानीय पड़ोसी काफ़िरीन का ‘इलाज’ करने के लिए भेजा जाता है। दिल्ली में हुई डॉ. नारंग एवं रामभक्त रिंकू की हत्याएं एवं बंगाल के मुर्शिदाबाद में आरएसएस के कार्यकर्ता बंधुप्रकाश पाल, उनकी गर्भवती पत्नी और बेटे की निर्मम हत्याएं इसी ‘इलाज’ की कड़ी का एक हिस्सा थीं। इस्लामी समुदाय द्वारा अंजाम दी जाने वाली इस तरह की कारगुज़ारियों का एकमात्र उद्देश्य आतंक पैदा करके उस स्थान विशेष के आसपास रहने एवं व्यवसाय करने वाले समस्त काफ़िर-समुदाय को मार भगाना होता है ताकि उन्हें उनके आतंकवादी कृत्यों से जुड़ी हुई संवेदनशील सूचनाएं किसी अन्य को प्राप्त न होने पाएं। तबलीगी जमात जिहाद एवं अन्य तरह के जिहादों के द्वारा इस मंशा को पूरा करने के लिए विस्तृत रणनीति बनाई जाती है जिसकी चर्चा आगे के आलेखों में की जाएगी।

मौजूदा समय में भारत के गोपनीय सरकारी संस्थानों एवं संवेदनशील अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के आसपास एक बेहद सुनियोजित योजना के तहत समुदाय विशेष की बस्तियां आबाद की जा रही हैं। उत्तराखंड में अल्मोड़ा, ज्वालापुर, रुड़की, हल्द्वानी, काशीपुर, रामनगर, काठगोदाम, राजस्थान में टोंक, बाड़मेर, जैसलमेर, मकराना, अजमेर, नागौर, उत्तर प्रदेश में अरमापुर ऑर्डिनेंस फैक्ट्री, (कानपुर), आगरा कैंट, बरेली कैंट, तमिलनाडु में अवाडी एयरफोर्स स्टेशन (चेन्नई), बंगाल और बिहार समेत भारत के सभी सैन्य संस्थानों के साथ सभी डीआरडीओ केंद्र जैसी सभी गोपनीय और संवेदनशील जगहों के आसपास एक बेहद पूर्व-नियोजित योजना के तहत इस्लामी समुदाय बहुत तेज़ी से अपनी आबादी का विस्तार कर रहा है जिसके दुष्परिणाम आने वाले समय में होने वाले युद्धकाल अथवा गृह-युद्ध में सामने निकल कर आएंगे।

आपको यह जानकर बड़ा ही आश्चर्य होगा कि यदि प्रतिशत की बात की जाए तो वर्ष 2001 से वर्ष 2011 के बीच में भारत में सबसे अधिक मुस्लिम आबादी उत्तराखंड में बढ़ी है। इस दौरान उत्तराखंड में मुस्लिम आबादी के बढ़ने की दर असम, पश्चिम बंगाल और केरल से भी अधिक रही है। उत्तराखंड से सटी नेपाल-चीन सीमा पर जिस तरह से मुस्लिम जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है, वह आने वाले समय में देश की सुरक्षा के लिए बहुत ही ख़तरे की बात है। शाहीन बाग आतंकवादी आंदोलन के दौरान शरजील इमाम जैसे इस्लामी आतंकवादी पहले ही उत्तर-पूर्व भारत को शेष भारत से जोड़ने वाले हिस्से, जिसको कि ‘चिकन नेक’ कहा जाता है, को अवरुद्ध करके देश को टुकड़े-टुकड़े करने की धमकी देकर अपने समुदाय की देश-विरोधी मंशा को बता चुके हैं।

यह कहते हुए हमें बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि इस्लामी आतंकवादी समुदाय तो भारत की सुरक्षा को कमजोर कर ही रहा है, ख़ुद देश की कई सरकारें भी इस काम को अंजाम देने में उनसे पीछे नहीं रही हैं और प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से इस काम को समर्थन भी देती रही हैं। उदाहरण के लिए अगर किसी फौजी के पास 1,200 ग़ज़ मार करने वाली कारगर रेंज की असॉल्ट रायफ़ल है तो समझ लीजिए कि वह जिहादियों के ऊपर मात्र गुलेल चलाने के बराबर है। इसकी मुख्य वजह यह है कि आज के मॉडर्न जिहादी- आतंकवादी AK-47 राइफलों, रॉकेट लांचरों, हैंड ग्रेनेडों सहित कई विध्वंसक हथियारों से लैस रहते हैं जिनके आगे साधारण सी असॉल्ट रायफ़लें कहीं नहीं टिकती हैं। हालांकि वर्ष 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद इस दिशा में बहुत काम किया गया है और अब भारतीय सुरक्षाबलों को पहले से बेहतर हथियार मुहैया कराए जा रहे हैं।

अब यदि नागरिक-सुरक्षा की बात की जाए तो भारतीय नागरिकों को आत्मरक्षा के लिए दिए जाने वाले हथियारों के लाइसेंसों पर सरकारों का अंकुश हिंदुओं को आत्मरक्षा के लिए हथियार खरीदने के लिए हतोत्साहित करता है। एक ओर जहां अवैध हथियारों के ज़ख़ीरे रखने वाले जिहादियों को हथियारों के लाइसेंसों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है तो दूसरी ओर जिन हिंदुओं के पास लाइसेंस होते भी हैं, सरकारों द्वारा दंगों के समय उनके सारे हथियार जमा करा लिए जाते हैं जबकि वहीं जिहादी तत्व अपने अवैध छुपे हुए हथियारों के ज़ख़ीरे को निहत्थे हिंदुओं के ऊपर प्रयोग करके भीषण नरसंहार को अंजाम देते हैं। पहले सरकारों के द्वारा एक व्यक्ति के नाम पर तीन हथियार तक रखने की अनुमति दी जाती थी परंतु अब इस संख्या को तीन से घटाकर दो कर दिया गया है।

सरकारों को यह समझना चाहिए कि हिंदुओं के लिए सरकारों के द्वारा जारी किए जाने वाले लाइसेंस एक तरह से दंगों के समय सरकारी कुनबे की ही मदद करते हैं परंतु सरकारें पहले तो हिंदुओं को लाइसेंस देने में ही आनाकानी करती हैं तथा दूसरे दंगों की स्थिति में उनके हथियार जमा करवाकर उन्हें मरने के लिए छोड़ देती हैं। यदि सरकारें हिंदुओं को लाइसेंस जारी करने में आनाकानी न करें और दंगों के समय के लाइसेंसों को जमा न करवाएं तो दंगे होने की स्थिति में हिंदू समुदाय ही सरकार की ताक़त बनकर दंगों को नियंत्रित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

ऐसा प्रायः देखा गया है कि दंगों के समय सरकारी तंत्र सबसे पहले तो एक्टिव ही नहीं होता है और जब तक एक्टिव होता भी है तब तक जिहादी तत्व हिंदुओं का बड़ा नुकसान कर देते हैं। दूसरी बात यह कि दंगे हो जाने की स्थिति में सरकारी बल स्वयं ही असुरक्षित महसूस करते हैं तो ऐसी स्थिति में हिंदू जनता की सुरक्षा की बात ही गौण पड़ जाती है। अतः बाबा इज़रायली का यह मानना है कि हिंदुओं को अपनी सुरक्षा के लिए लाइसेंसी हथियारों या सरकारी सहायता पर बिल्कुल भी निर्भर नहीं होना चाहिए एवं अपनी सुरक्षा के लिए उन्हें अन्य विकल्पों पर अवश्य विचार करना चाहिए अन्यथा दंगों की स्थिति में उनके पास मर-मिटने के अलावा कोई दूसरा चारा शेष नहीं होगा।

शलोॐ…!