देश का हित-अहित केवल जनमत से ही सुरक्षित नहीं हो सकता…

Prajatantra Athwa Varnasharm Vyavastha by Guru Dutt babaisraeli.com456

सन 1962 की चीन से पराजय के उपरांत भारत सरकार ने अपने मुख पर से कालिख धोने के लिए समाजवाद का नारा दिया। हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि समाजवाद अच्छा है अथवा बुरा है। इसके विषय में कुछ आगे चलकर लिखेंगे। यहां हमारा अभिप्राय केवल इतना है कि देश की अनपढ़, अयोग्य और कर्महीन जनता को प्रसन्न करने के लिए सन 1964 में भुवनेश्वर में कांग्रेस ने पूर्ण समाजवाद का संकल्प घोषित कर दिया। इससे पूर्व, पूर्ण-समाजवाद के लिए आग्रह नहीं था। जो कुछ किया जा रहा था वह लोक कल्याण का कार्य था और उसी को समाजवाद का नाम दिया जा रहा था परंतु सन 1964 में पूर्ण समाजवाद लाने की घोषणा इसी कारण की गई कि नासमझ मतदाताओं से कांग्रेस के पक्ष में मत लिए जा सकें।

इस पूर्ण विवरण को देने का हमारा अभिप्राय केवल इतना है कि राज्य की विषम समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रजातांत्रिक पद्धति में योग्य प्रतिनिधि निर्वाचित नहीं हो सकते और यही हुआ। सन 1962 एवं सन 1965 में दो विशिष्ट घटनाओं में अपने को अयोग्य सिद्ध करने वाले दल कांग्रेस ने सन 1967 में पुनः सत्ता प्राप्त कर ली। यह ठीक है कि संसद में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या में कुछ कमी हुई परंतु इससे यह प्रकट नहीं होता कि जनता कुछ अधिक बुद्धिमान हो गई थी। संसद के सदस्यों में यदि जनसंघ के कुछ सदस्य अधिक हुए तो कम्युनिस्टों की संख्या में उनसे भी अधिक वृद्धि हुई। कम्युनिस्ट वे हैं जो चीन के समर्थक हैं। उनमें से अधिकांश चीन के आक्रमण को न्यायसंगत समझते हैं और प्रायः सब के सब चीन के आक्रमण बंद कर देने को उचित नहीं समझते। देश की जनता ने कांग्रेस को अयोग्य समझ उसे कम मत दिए परंतु आप देश का दुर्भाग्य देखिए कि देश के शत्रुओं को अधिक मत दे दिए।

इससे यह बात स्पष्ट होती है कि देश का हित-अहित केवल जनमत से ही सुरक्षित नहीं हो सकता। भारत की वर्तमान अराजकता इस कारण ही है कि यहां प्रजातांत्रिक पद्धति से सरकार बनती है। देश की पूर्ण-वयस्क जनता को बिना किसी के गुण-दोष देखे और बिना उसकी योग्यता का अनुमान लगाए, संसद सदस्य चुनने का अधिकार प्राप्त है। यह लोग किस प्रकार अपने प्रतिनिधि चुनते हैं, इसका अनुमान निर्वाचन में होने वाले उनके प्रचार-प्रसार से पता चलता है। देश में कई दल हैं। वे दल अपनी नीतियों को घोषित करते हैं और नीतियों की घोषणा के समय वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनकी ऐसी नीतियां होनी चाहिए जो जन-साधारण के अंदर उपस्थित मूर्ख और गंवार लोगों को फंसा सकें।

विशेष: उपरोक्त बौद्धिक-अंश महान हिंदूवादी लेखक ‘गुरुदत्त’ की प्रसिद्ध पुस्तक ‘प्रजातंत्र अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था’ से उद्धृत है। यह पुस्तक भारत के राजनीतिक परिदृश्य से जुड़ी हुई समस्याओं एवं चुनौतियां के विषय में दो टूक बात रखने की हिम्मत करती है। इस पुस्तक को आप टीम बाबा इज़रायली द्वारा विकसित किए जा रहे ‘ई-पुस्तकालय‘ में जाकर पढ़ सकते हैं। आने वाले समय में आपको हमारे इस ई-पुस्तकालय में हिंदू-चेतना से जुड़ा हुआ दुर्लभ हिंदू-साहित्य प्राप्त होगा।

शलोॐ…!