‘बिहार का जंगलराज’: ललित नारायण मिश्र हत्याकांड- एक भयंकर कांग्रेसी साज़िश !

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पूर्व स्वतंत्रता सेनानी एवं बिहार के मजबूत नेता रहे स्व० ललित नारायण मिश्र सत्तर के दशक के चर्चित केंद्रीय मंत्री थे। ललित नारायण मिश्र एक दबंग और ज़मीन से जुड़े नेता थे। वे तत्कालीन प्रधानमंत्री मैमूना बेगम (इंदिरा गांधी) और उनके छोटे पुत्र संजय गांधी के अत्यंत ही क़रीबी थे। उनके बारे में कहा जाता है कि उनके जितने दोस्त थे, उससे कहीं ज़्यादा उनके दुश्मन थे जो उनके राजनैतिक उभार से जलते थे। वे अपने जीवनकाल में कई कारणों से अक्सर चर्चाओं में रहे परंतु उनके जीवनकाल के बाद उनसे जुड़ी हुई बातों के विषय में यदि सबसे अधिक चर्चा होती है तो वह उनकी मृत्यु से जुड़े षड्यंत्र के विषय में होती है।

जब ललित नारायण मिश्र की हत्या हुई थी तब कांग्रेस के इस्लामी नेता मोहम्मद अब्दुल ग़फ़ूर बिहार के मुख्यमंत्री थे। उत्तर बिहार के समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर 2 जनवरी, 1975 को समस्तीपुर-मुज़फ़्फ़रपुर बड़ी लाइन का उद्घाटन समारोह आयोजित होने वाला था। नगर के सभी लोग समारोह की तैयारियों में थे। जैसे ही तत्कालीन रेल-मंत्री ललित नारायण मिश्र समारोह स्थल पर पहुंचे, जनता ने गगनभेदी नारों के साथ उनका अभिवादन किया। अभी समारोह चल ही रहा था कि सभा-स्थल पर कुछ व्यक्तियों के समूह ने ललित नारायण मिश्र को निशाना बनाकर ग्रेनेड से हमला कर दिया गया। चंद पलों के अंदर ही सभा-स्थल पर हाहाकार मच गया और लोग बेतहाशा इधर-उधर भागने लग गए। इस हमले में ललित नारायण मिश्र सहित कई अन्य लोग गंभीर रूप से घायल हो गए।

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इस विस्फोट के फ़ौरन बाद ही यह षड्यंत्र शुरू हो गया कि कैसे ललित नारायण मिश्र का जल्दी से जल्दी और ठीक-ठाक इलाज नहीं होने दिया जाए। ऐसे कुछ नेतागण घटनास्थल पर भी थे जिनका नाम काफ़ी बाद में इस कांड में षड्यंत्रकारी के रूप में सामने आया था। दरअसल वे लोग ललित नारायण मिश्र के पहले क़रीबी ही माने जाते थे लेकिन बाद में इस बात का रहस्योद्घाटन हुआ कि वे लोग कालांतर में ईर्ष्यावश उनके उभार से भीतर ही भीतर उनके दुश्मन बन चुके थे। बिहार की जांच एजेंसियों द्वारा की गयी शुरुआती जांच में इस षड्यंत्र के तार दिल्ली के तख़्त पर आसीन कांग्रेसी नेताओं से जुड़े पाए गए परंतु बाद में केंद्रीय जांच एजेंसियों के द्वारा इस जांच की दिशा को भटकाकर असली गुनहगारों को बचाने के शर्मनाक प्रयास किए जाते रहे।

प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक़ 2 जनवरी, 1975 को शाम 5 बज कर 50 मिनट पर ललित नारायण मिश्र की जनसभा पर हैंड ग्रेनेड से हमला किया गया। घायल ललित नारायण मिश्र को बगल के शहर दरभंगा के किसी निजी अस्पताल में इलाज के लिए पहुंचाया जा सकता था पर दिल्ली से मिले विशेष दिशा-निर्देशों के चलते उन्हें एक विशेष ट्रेन से समस्तीपुर से काफ़ी दूर दानापुर ले जाया गया। वह विशेष ट्रेन जिससे ललित बाबू को दानापुर लाया गया था, वह भी समस्तीपुर से काफ़ी विलम्ब से- लगभग रात आठ बजे रवाना की गई थी।

इस मुक़दमे के अलावा ललित नारायण मिश्र हत्याकांड की जांच के लिए मैथ्यू आयोग भी बना था। मैथ्यू आयोग के समक्ष समस्तीपुर रेल पुलिस के अधीक्षक सरयुग राय और अतिरिक्त कलेक्टर आर० वी० शुक्ल ने कहा था कि ललित नारायण मिश्र को घायलावस्था में समस्तीपुर से दानापुर ले जाने वाली गाड़ी को समस्तीपुर स्टेशन पर शंटिंग में ही एक घंटा दस मिनट लग गए थे।

दरभंगा के कमिश्नर जे० सी० कुंद्रा ने 16 अप्रैल, 1975 को आयोग से कहा था कि मैंने उद्घाटन के अवसर पर दो हज़ार लोगों को आमंत्रित करने के रेल अधिकारियों के प्रस्ताव को कभी सहमति नहीं दी थी परंतु इसके बाद भी सुरक्षा-व्यवस्था में कोई कमी नहीं बरती गई थी। इसके अलावा ये भी बताया गया कि उस दिन तकनीकी कारणों से ट्रेन जल्दी नहीं खुल सकी थी। उस ट्रेन को जान-बूझकर बीच में भी रोककर लेट किया गया था। उन दिनों बिहार के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की हड़ताल थी परंतु निजी चिकित्सकों से उनका इलाज करवाया जा सकता था। समस्तीपुर से घंटों यात्रा करके दानापुर के मामूली रेलवे अस्पताल में लाने के पीछे के षड्यंत्र के विषय में उसी समय लोगों को पता चल चुका था। ऐसा इसलिए किया गया था क्योंकि सत्ता में बैठे षड्यंत्रकारियों के द्वारा निजी अस्पताल के डॉक्टरों की अपेक्षा सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों के द्वारा मन-मुताबिक़ कार्य करवाना अधिक सहूलियत भरा रहता है। ज़ाहिर सी बात है कि देरी पर देरी किए जाने के कारण ललित नारायण मिश्र की हालत अधिक बिगड़ गई और अगले दिन उनकी मृत्यु हो गई।

जब यह हत्याकांड हुआ था तब आनंद-मार्ग के संस्थापक प्रभात रंजन सरकार उर्फ़ आनंदमूर्ति पटना के केंद्रीय कारागार में बंद थे। उन पर अपने ही संगठन के बाग़ी सन्यासियों की हत्या का आरोप था जिससे वे बाद में बरी हो गए थे पर आनंदमूर्ति के जेल में रहने के कारण देश-विदेश में फैले उनके कट्टर अनुयायियों में बड़ा रोष था। सी०बी०आई० का आरोप है कि आनंदमार्गियों ने अपने गुरु की रिहाई के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए ललित नारायण मिश्र की हत्या कर दी। हालांकि बिहार पुलिस की सी०आई०डी० द्वारा प्रारंभिक जांच के सिलसिले में जो बातें सामने आई थीं, वे बातें किन्हीं अन्य प्रभावशाली लोगों की तरफ़ इशारा करती थीं। यदि उन बातों को संज्ञान में लिया जाता तो इस हत्याकांड का मुख्य सूत्रधार दिल्ली में बैठा एक अत्यंत ही प्रभावशाली कांग्रेसी नेता निकलता जिसका सत्ता के शीर्ष-स्तर अर्थात मैमूना बेगम से सीधा-सीधा संबंध स्थापित होता। आनंदमार्गी इस हत्याकांड में कहीं नहीं थे परंतु असली गुनहगारों को बचाने के लिए कांग्रेसी षड्यंत्रकारियों ने आनंदमर्गियों को बलि का बकरा बना दिया।

ललित नारायण मिश्र के एक परिजन ने भी एक साक्षात्कार के दौरान इस बात की पुष्टि की थी कि दिल्ली के उस प्रभावशाली व्यक्ति का ही उनकी हत्या में हाथ था। इस केस में ललित नारायण मिश्र के छोटे भाई एवं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ० जगन्नाथ मिश्र ने भी अदालत में कुछ ऐसी ही गवाही दी थी। इस केस के संबंध में ललित नारायण मिश्र के परिजन सदैव यह मानते रहे कि जिन आनंदमार्गियों को उनकी हत्या के मामले में आरोपित किया गया था, उनसे ललित नारायण मिश्र की किसी भी प्रकार की कोई दुश्मनी नहीं थी। ललित बाबू के बेटे विजय कुमार मिश्र ने अदालत के समक्ष स्पष्ट रूप से यह कह दिया था कि मेरे पिता की हत्या में उन लोगों का हाथ नहीं है जिनके ख़िलाफ़ ये आरोप-पत्र दाख़िल किया गया है। इससे पहले ललित नारायण मिश्र की विधवा स्व० श्रीमती कामेश्वरी देवी ने भी मई 1977 में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह को पत्र लिखकर उनसे मांग की थी कि वे मेरे पति की हत्या के मामले की फिर से जांच कराएं। उन्होंने यह भी लिखा था कि जिन आनंदमार्गियों को इस कांड में गिरफ़्तार किया गया है, वे सभी निर्दोष हैं। स्व० कामेश्वरी देवी का सन 2001 में निधन हो गया था।

इस केस के अनुसंधान के दौरान कई अहम मोड़ आए। घटना के बाद की शुरुआती जांच के दौरान अरुण कुमार ठाकुर और अरुण मिश्र के सनसनीखेज बयान सामने आए। इन लोगों ने समस्तीपुर के एक न्यायिक दंडाधिकारी के समक्ष सी०आर०पी०सी० की धारा-164 के तहत यह बयान दिया था कि दिल्ली स्थित किसी कांग्रेसी नेता के कहने पर ही उन लोगों ने ही ललित बाबू की हत्या की योजना बनाकर उस जघन्य हत्याकांड को अंजाम दिया था। बिहार पुलिस की सी०आई०डी० ने मिश्र और ठाकुर के यह बयान दर्ज़ करवाए थे जिसे बाद में हुई सी०बी०आई० जांच में धीरे से ग़ायब कर दिया गया। इस केस को लेकर आशंकाएं तब और भी गहरा गई थीं जब एप्रूवर विक्रम ने भी आरोप लगाया कि सी०बी०आई० ने उन पर दबाव डालकर उनसे ग़लत बातें कहलवा लीं।

इस हत्याकांड की जांच का भार पहले बिहार पुलिस की सी०आई०डी० पर था पर विजय मिश्र के अनुसार बिहार सरकार की अनुमति के बिना ही इस केस को सी०बी०आई० को सौंप दिया गया था। बिहार पुलिस द्वारा पटना की अदालत में इस केस से संबंधित आरोप-पत्र भी दाख़िल किया जा चुका था पर केस अपने हाथ में लेने के बाद सी०बी०आई० ने सुप्रीम कोर्ट से गुज़ारिश की कि वह इस केस को बिहार से बाहर सुनवाई के लिए भेजने का आदेश दे। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 17 दिसंबर, 1979 को इस केस को बिहार से बाहर भेजने का आदेश दे दिया। उसके बाद कांग्रेसी इशारों पर तारीख़-दर-तारीख़ यह केस लंबा खिंचता चला गया और 22 मई, 1980 को इस केस को दिल्ली में सेशन ट्रायल के लिए भेज दिया गया।

वर्ष 1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने प्रसिद्ध न्यायविद एम० तारकुंडे से कहा था कि वे इस बात की समीक्षा करें कि सी०बी०आई० इस केस की जांच सही दिशा में कर रही है या नहीं? तारकुंडे ने फ़रवरी, वर्ष 1979 में प्रस्तुत की गयी अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से पुनः इसी बात को रेखांकित किया था कि सी०बी०आई० इस केस में आनंदमार्गियों को ग़लत ढंग से फंसा रही है। इस रिपोर्ट को बिहार सरकार ने केंद्र सरकार को भेज दिया था परंतु सी०बी०आई० लगातार अपने उसी आरोप पर क़ायम रही कि आनंदमार्गियों ने अपने गुरू पी० सी० सरकार की जेल से रिहाई के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए रेल मंत्री की हत्या कर दी। हालांकि बिहार पुलिस की सी०आई०डी० द्वारा प्रारंभिक जांच के क्रम में जो बातें सामने आई थीं कि इस हत्याकांड में किन्हीं अन्य प्रभावशाली लोगों का हाथ है, सी०बी०आई० ने कभी भी उनका उल्लेख करना तक उचित नहीं समझा।

इस कांड को लेकर बिहार सरकार और केंद्र सरकार के बीच लगातार खींचतान भी चली थी। विभिन्न अदालतों में भी इस केस को काफ़ी लंबे समय तक उलझाया गया। अंततः क़रीब चालीस साल के बाद इस केस में जिनको सज़ा हुई भी, उन्हें मृतक के परिजन एकदम निर्दोष मान रहे हैं। वैसे आज भी बिहार का बच्चा-बच्चा इस सत्य से परिचित है कि राजनैतिक हत्याओं के विषय में डॉक्टरेट की डिग्री रखने वाला वह कौन सा राजनैतिक-गिरोह है जिसने ललित नारायण मिश्र के राजनैतिक उभार से घबराकर उनकी निर्मम हत्या करवाई थी?

दिसंबर, 2014 में दिल्ली की निचली अदालत ने ललित नारायण मिश्र हत्याकांड में चार आनंदमार्गियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। उस निर्णय के तत्काल बाद ललित नारायण मिश्र के पुत्र विजय कुमार मिश्र ने पुनः अपनी उसी बात को दोहराया था कि जांच एजेंसियों ने आनंदमार्गियों को झूठा फंसाया है। उन लोगों से हमारे पिता या परिवार की कोई दुश्मनी नहीं थी। फ़िलहाल, ग़लत फंसाए गए आनंदमर्गियों की अपील आज भी ऊपरी अदालत में लंबित है और उनको वर्ष 2015 में ज़मानत मिल भी गई थी। कांग्रेसी षड्यंत्रकारियों ने जिन बेगुनाहों को इस जघन्य हत्याकांड में ग़लत फंसा दिया, बहुत संभव है कि आने वाले समय में उन्हें राहत मिल भी जाए परंतु स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी एवं बिहार की ज़मीन से जुड़े हुए भारत-पुत्र ललित नारायण मिश्र की आत्मा को शायद तब तक शांति प्राप्त नहीं होगी जब तक कि भारत की जनता, भारत-भूमि एवं भारत की राजनीति से उनके क़ातिलों के वंशजों को समूल नष्ट करके उन्हें खाक़ में नहीं मिला देती है !

शलोॐ…!