गीता प्रेस, गोरखपुर प्रबंधन मंडल के मानसिक-दिवालिएपन का उत्कृष्ट उदाहरण…

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हिंदू ऐतिहासिक रूप से सदैव ही मतिभ्रम का शिकार रहा है। इसी वजह से उसे अपने सच्चे हितैषी रास नहीं आते हैं और जो लोग उसके अस्तित्व को समाप्त करने के लिए उद्यत रहते हैं, हिंदू सदैव उनको अपना भाई एवं शुभचिंतक मानकर अपने सर-माथे लगाकर रखता है। दरअसल हिंदुओं की यह समस्या हिंदुओं के निचले एवं अशिक्षित माने जाने वाले तबके से शुरू नहीं होती है बल्कि यह समस्या हिंदुओं के उस शीर्ष स्तर से शुरू होती है जिसे हम तथाकथित रूप से शिक्षित, जागरूक एवं धर्मपरायण वर्ग कहा करते हैं।

हिंदुओं के इसी वैचारिक-विचलन का यह परिणाम रहा है कि हिंदुओं ने अपने सच्चे शुभचिंतकों को शोषित करके एवं अपने शत्रुओं को पोषित करके सदैव ही अपनी ऐतिहासिक आत्माहंता भस्मासुरी प्रवृत्ति का शर्मनाक प्रदर्शन किया है। इसीलिए एक लंबे समय से हम यह कहते आ रहे हैं कि हिंदुओं के इस वैचारिक विचलन के शोधन के लिए ऐसे शिक्षण संस्थानों की आवश्यकता है जो उन्हें अपने धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय नरेटिव के प्रति सचेत और जागरूक कर सकें।

अब आते हैं एक ताज़ा ख़बर के ऊपर जिसने हिंदुओं की इसी ऐतिहासिक बीमारी का पुनः सार्वजनिक प्रदर्शन किया है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में गीता प्रेस नामक एक ऐसी सनातनी साहित्यिक संस्था है जो दशकों से बेहद कम मूल्य पर हिंदुओं को सनातनी साहित्य उपलब्ध करवाती आ रही है। गीता प्रेस के दानदाता गुप्त रूप से उसको जो आर्थिक अनुदान उपलब्ध करवाते हैं, उसी के आधार पर गीता प्रेस सनातनी साहित्य के प्रकाशन की मात्रा तय किया करती है और उसे छापा करती है।

चित्र: गीता प्रेस के द्वारा किया गया प्रथम ट्वीट

पिछले कुछ दशकों से जब से भारत में इस्लामी एवं ईसाई प्रचारकों ने युद्ध स्तर पर अपने-अपने मतों के प्रसार के लिए नई-नई नीतियां अपनाते हुए भारी मात्रा में अपने साहित्य को मुफ़्त में वितरित करना शुरू किया है, तब से हिंदुओं के एक लालची वर्ग को गीता प्रेस के द्वारा कम क़ीमत पर प्रदान करवाया जा रहा सनातनी साहित्य भी महंगा लगने लगा है। मुफ़्त इस्लामी एवं ईसाई साहित्य की निर्बाध आपूर्ति एवं उनकी मिशनरीज़ के जीवटता भरे निरंतर प्रयासों के परिणामस्वरूप आज भारत का गरीब एवं अशिक्षित हिंदू समुदाय बहुत तेज़ी से अपना मतांतरण कर रहा है।

उपरोक्त बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रवादी सनातनी लोगों के एक समूह ने पिछले कुछ वर्षों से गीता प्रेस को प्रमोट करने के लिए अपने प्रयास करने शुरू किए। इन प्रयासों को लोगों ने सराहते हुए गीता प्रेस से भारी मात्रा में सनातनी साहित्य को ख़रीदने के लिए अपनी प्रतिबद्धता भी जताई। अब इसके जवाब में गीता प्रेस ने अपने शुभचिंतकों को क्या उपहार दिया, यह जानना भी अत्यंत आवश्यक है। जिस गीता प्रेस को प्रमोट करने के लिए सनातनी राष्ट्रवादी लोग सोशल मीडिया एवं अपने सामाजिक दायरे में वर्षों से मेहनत करते रहे, गीता प्रेस ने आज एक ट्वीट के माध्यम से अपने उन्हीं शुभचिंतकों को ‘असामाजिक तत्व’ घोषित कर दिया।

गीता प्रेस के द्वारा हमें आज इस बात का पता चला कि किसी धार्मिक संस्था के द्वारा दानदाताओं से दान स्वीकार करना एक ग़लत बात है एवं दान स्वीकार करने से किसी धार्मिक संस्थान की बड़ी बेइज़्ज़ती होती है। इसके अलावा किसी भी धार्मिक संस्था को दानदाताओं से दान को स्वीकार भी नहीं करना चाहिए और अपने असली शुभचिंतकों को इसी तरह से अपमानित करना चाहिए। वैसे यहां पर हम गीता प्रेस से एक प्रश्न अवश्य करना चाहेंगे कि क्या गीता प्रेस इस बात का शपथ पत्र दे सकता है कि उसने अपनी स्थापना से लेकर आज तक सार्वजनिक अथवा सरकारी सब्सिडी के रूप में किसी भी सार्वजनिक जान को स्वीकार नहीं किया है?

चित्र: आलोचना के उपरांत प्रथम ट्वीट को डिलीट करके गीता प्रेस के द्वारा किया गया द्वितीय ट्वीट

अगर हिंदू संस्थानों में ऐसे ही मूर्ख लोग भरे हुए न होते तो आज हिंदू संस्थानों का ऐसा बुरा हाल न होता। फ़िलहाल, ताज़ा ख़बर यह है कि गीता प्रेस लोगों से अनुदान लेगा भी नहीं और इसके पास लोगों को प्रदान करने के लिए गीता दैनंदिनी-2021 का स्टॉक भी समाप्त हो चुका है। अभी तो वर्ष 2021 आया भी नहीं है और गीता दैनंदिनी की डिमांड तो पूरे वर्ष रहती ही है, अतः ऐसी स्थिति में गीता प्रेस के द्वारा गीता दैनंदिनी-2021 उपलब्ध न करवा पाने का बयान किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं है। ऐसे में इस समस्या का बस यही समाधान निकलता है कि या तो हमें गीता प्रेस के प्रबंधन मंडल के अंदर घुसे हुए मानसिक दिवालिए लोगों को गीता प्रेस प्रबंधन की कार्यकारिणी से बाहर करवाते हुए इसमें समझदार समझदार लोगों को शामिल करवाना होगा अथवा गीता प्रेस का एक ऐसा विकल्प खड़ा करना होगा जो न केवल सनातनियों का दान स्वीकार करे बल्कि उन्हें सनातनी-साहित्य की निर्बाध आपूर्ति भी जारी रख सके।

शलोॐ…!

विशेष: इस आलेख को लिखने के बाद परंतु सार्वजनिक मीडिया में पोस्ट करने से एकदम पहले हमें यह सूचना प्राप्त हुई है कि सोशल मीडिया में हो रही भयंकर थू-थू और आलोचना के बाद गीता प्रेस ने अपना उक्त अभद्र ट्वीट डिलीट करके एक अन्य ट्वीट किया है जिसमें उसने अपना प्रचार करने वाले शुभचिंतकों के प्रति आभार व्यक्त किया है।